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________________ Vol. xxV, 2002 जैन दर्शन में निर्जरा तत्त्व 145 हैं. जिस प्रकार आहार में कमी की जाती है, उसी प्रकार कषाय, उपकरण आदि में कमी होती है। इसके द्रव्य और भाव दो भेद हैं। द्रव्य के अवान्तर अनेक भेद बताये गये हैं। भाव ऊनोदरी में क्रोध को कम करना, मान को कम करना, माया और लोभ को कम करना आदि शामिल हैं। द्रव्य ऊनोदरी में साधक जीवन को बाहर से हल्का, स्वस्थ व प्रसन्न रखने का मार्ग बताया गया है और भाव ऊनोदरी में अन्तरंग प्रसन्नता, आन्तरिक लघुता, और सद्गुणों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। ३. वृत्ति संक्षेप (भिक्षाचरी) - वृत्ति संक्षेप का अर्थ है – सीमित या कम करना । इसमें अनेक वस्तुओं की इच्छा या लालसा को कम किया जाता है। आहार आदि को अभिग्रह करके उसकी गवेषणा करना है। आचार्य हरिभद्र ने भिक्षा के तीन प्रकार बताये हैं - दीनवृत्ति, पौरुषघ्नी और सर्वसम्पत्करी ।३३ जो अनाथ है, अपंग हो, दरिद्र हो, ऐसे व्यक्ति जब भिक्षा माँग कर खाते हैं, उसे दीनवृत्ति भिक्षा कहते हैं। यदि व्यक्ति में श्रम करने की शक्ति हो, लेकिन कमाने की शक्ति न होने पर माँग कर खाने को पौरुषघ्नी कहते हैं। इस प्रकार के भिक्षुक देश भर के लिए भार स्वरूप हैं। जो त्यागी अहिंसक, सन्तोषी श्रमण अपने उदर निर्वाह के लिए शुद्ध और निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं, वह सर्वसम्पत्कारी भिक्षावान् है । इस प्रकार की भिक्षा लेने व देनेवाले दोनों ही सद्गति में जाते हैं। सर्वसम्पत्कारी भिक्षा ही वास्तव में कल्याणकारी भिक्षा है। भिक्षाचरी के अनेक भेद-प्रभेद का उल्लेख किया गया है।३४ भिक्षुक के अनेक दोषों को टालकर भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।३५ । ४. रस परित्याग – रस का अर्थ है—प्रीति बढ़ाने बाला । जिस पदार्थ से भोजन में, वस्तु में प्रीति उत्पन्न होती हो, उसे रस कहते हैं। घृत, दूध आदि तथा मधु, मक्खन इन विकार-कारक रसों का त्याग रस त्याग कहलाता है। भोजन से सम्बन्धित छः रसों का वर्णन किया गया है, जो निम्न हैं१. कटु - कड़वा ४. तिक्त - तीखा २. मधुर - मीठा ५. काषाय - कसैला ३. आम्ल - खट्टा ६. लवण - नमकीन ..... इन छः प्रकार के रसों से भोजन मधुर व स्वादिष्ट बनता है और अधिक खाया भी जाता है । अतः कहा गया है - रस प्रायः दीप्ति उत्तेजना पैदा करनेवाले होते हैं।३६ दूध, दहीं आदि रसों को विगय कहा गया है। सिद्धसेन ने बताया कि – इनके खाने से विकार पैदा होते हैं । जिससे मनुष्य सद्मार्ग को छोड़कर भ्रष्ट हो जाता है । अतः ये पदार्थ सेवन करनेवाले में विकृति एवं विगति दोनों के हेतु हैं । इसी कारण इसे विगह कहा गया है ।३७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.520775
Book TitleSambodhi 2002 Vol 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
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