________________
डॉ. के. आर. चन्द्र
SAMBODHI छन्द की दृष्टि से सभी पद्य गाथा-छन्द में हैं।
भाषिक दृष्टि से 'सव्वभावेणं' के स्थान पर 'निशीथसूत्र-भाष्य' का 'सव्वभावेण' पाठ प्राचीन लगता है। इसी प्रकार द्वितीया बहुवचन के लिए 'अवराहा' प्रयोग के बदले में ‘अवराहे' पाठ भी अधिक उचित ठहरता है। ‘उवट्ठिओ' के बदले में उवट्टितो' पाठ भी उसमें प्राचीनता को लिए हुए है जो सभी ग्रंथों में प्रयुक्त हुआ है। पुनश्च ‘ते हं आलोएमी' अथवा 'ते सव्वे आलोए' के स्थान पर 'निशीथसूत्रभाष्य'का ‘ते हं आलोएतुं उवट्टितो' पाठ समीचीन लगता है। ऐसी अवस्था में इस पद्य का मूल प्राचीन रूप इस प्रकार का रहा होगा
जे मे जाणंति जिणा अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु।
ते हं आलोएतुं उवहितो सव्वभावेण ॥ कालान्तर में यही पाठ विविध ग्रंथों में बदलता गया। अतः इस पद्य का मूल पाठ 'निशीथसूत्रभाष्य' में सुरक्षित रूप में विद्यमान है। ८. 'महाप.' का पद्य नं. ८२ का पाठ इस प्रकार है
किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं ।
परलोएणं सक्का साहेउं अप्पणो अढें ॥ आराधनापताका' के पद्य नं. १० का पाठ
किं पुण अणगारसहायगेण अन्नोन्नसंगहबलेण ।
परलोइए न सक्का साहेउं अप्पणो अटुं॥ 'निशीथसूत्र-भाष्य' के पद्य नं. ३९१३ का पाठ
किं पुण अणगारसहायएण अण्णोण्णसंगहबलेण।
परलोइयं ण सक्कड़ साहेउं उत्तिमो अट्ठो ॥ 'भगवतीआराधना' के पद्य नं. १५५४ का पाठ
किं पुण अणगारसहायगेण कीरयंत पडिक्कमो ।
संघे ओलग्गंते आराधेदुं ण सक्केज ॥ छन्द की दृष्टि से 'भगवतीआराधना' के सिवाय अन्य तीनों ग्रंथों के पद्य गाथा-छन्द में उपलब्ध हो रहे हैं। ‘भगवती-आराधना' में प्रथम पाद में २८ मात्राएँ हैं जो छन्द की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। 'कीरयंत
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org