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________________ Vol. XXIV, 2001 श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णकों... तीनों ग्रंथों का यह पद्य गाथा-छन्द में है। महाप.' में 'जिणेहिं पद के बदले में 'जिणेहि' (चार मात्रा वाला गण) पाठ होना चाहिए था जो छंद की दृष्टि से ही नहीं परंतु भाषा की प्राचीनता की दृष्टि से भी उपयुक्त ठहरता है। भाषिक दृष्टि से समीक्षा'मूलाचार' में 'निंदामि' और 'निंदणिजं' के बदले में 'जिंदामि' और 'णिंदणिज' पाठ भाषिक दृष्टि से परवर्ती काल के हैं और 'महाप.' एवं 'आतुरप्र.' में 'आलोएमि' पाठ 'मूलाचार' के 'आलोचेमि' पाठ से परवर्ती काल का है। 'मूलाचार' का 'गरहणीयं' पाठ ‘गरहणिजं' पाठ से प्राचीन लगता है। अतः मूल पाठ प्राचीनता की दृष्टि से इस प्रकार होना चाहिए निंदामि निंदणिजं, गरहामि य जं च मे गरहणीयं । आलोचेमि य सव्वं, जिणेहि जं जं च पडिकुटुं॥ 'आतुरष.' में जो 'सब्भिंतर बाहिरं उवहिं' पाठ है वह ‘सब्भंतरबाहिरं उवहिं' में बदला जाना चाहिए। ७. 'महाप.' के पद्य नं. २० का पाठ इस प्रकार है जं मे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । ते हं आलोएमी, उवढिओ सव्वभावेणं ॥ 'चंद्रवेध्यक प्रकीर्णक' के पद्य नं. १३२ का पाठ इस प्रकार है जे मे जाणंति जिणा अवराहे, नाण-दंसण-चरित्ते । ते सव्वे आलोए उवढिओ सव्वभावेणं ॥ 'मरणविभक्ति' के पद्य नं. १२० का पाठ ‘महाप.' के पाठ के समान ही है। 'आतुरप्रत्याख्यान (२) के पद्य नं. ३१ का पाठ 'तेसु तेसु' उपयुक्त नहीं लगता है, उसके स्थान पर जेसु जेसु' पाठ ही होना चाहिए जो सार्थक प्रतीत होता है। 'आराधनापताका' (१) के पद्य नं. २०७ में 'आलोएमी' पाठ के स्थान पर आलोएउं' पाठ मिलता है। 'निशीथसूत्र-भाष्य' के पद्य नं. ३८७३ का पाठ इस प्रकार है जे मे जाणंति जिणा अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु । तेहं (=तेऽहं) आलोएतुं उवट्ठितो सव्वभावेण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520774
Book TitleSambodhi 2001 Vol 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages162
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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