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डॉ. के. आर. चन्द्र
रायबंधं पदोसं च, हरिसं दीणभावयं
उस्सुगत्तं भयं सोगं, रदिमरदिं च वोसरे ॥
छन्द की दृष्टि से समीक्षा
'महाप. ' के पद्य में मात्राएँ १४+१२ और १४+१२ हैं । 'आतुरप्रत्याख्यान' में १४+१२ और १४+१३ हैं । 'मूलाचार' में १३+१२ और १४+१२ हैं । अतः यह गाथा - छन्द नहीं है ।
'महाप.' में ८+८ और ८ +९ वर्ण हैं, 'आतुरप्र.' मे भी यही स्थिति है । 'मूलाचार' में भी ऐसी ही वर्णव्यवस्था है | अतः यह पद्य अनुष्टुप् छन्द में है ।
भाषिक दृष्टि से समीक्षा
'मूलाचार' के पद्य में 'रायबंध' शब्द में 'राय' शब्द महाप. के 'रागं' की अपेक्षा परवर्ती है जबकि 'पदोसं' शब्द 'पओसं' की अपेक्षा और 'रदिमरदिं' शब्द 'रइमरई' की अपेक्षा प्राचीन है । इस दृष्टि से इस पद्य का मूल पाठ इस प्रकार रहा होगा जो परवर्ती काल में अन्य ग्रंथों में बदलता गया ।
रागं बंधं पदोसं च हरिसं दीणभावयं ।
उस्सुगत्तं भयं सोगं, रतिमरतिं च वोसरे ॥
इस पद्य में मूल 'रतिमरतिं' का 'महाप.' में 'रइमरई' महाराष्ट्री रूप बन गया हो और 'मूलाचार' में 'रदिमरदिं' शौरसेनी रूप बन गया हो ऐसा प्रतीत होता है ।
६. 'महाप' के पद्य नं. ८ का पाठ इस प्रकार है
निंदामि निंदणिज्जं, गरहामि जं च मे गरहिणज्जं ।
आलोएम य सव्वं, जिणेहिं जं जं च पडिकुट्टं ॥
'आतुर' के पद्य नं. ३२ के दूसरे पाद का परवर्ती भाग 'महाप. ' पाठ से अलग है जो इस प्रकार है'सब्भिंतर बाहिर उवहिं' ।
'मूलाचार' के पद्य नं. ५५ का पाठ इस प्रकार है
SAMBODHI
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जिंदामि जिंदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं ।
आलोय सव्वं, सब्धंतरबाहिरं उवहिं ॥
छन्द की दृष्टि से समीक्षा
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