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Vol. XXIV, 2001
श्वेताम्बर अर्धमागधी आगमों के अन्तर्गत प्रकीर्णकों... 'बाहिरऽब्भंतरं (उवहिं के बदले में) ओवहिं' तो इस पद में वर्ण नं. ५,६,७ की मात्राएँ ल., गु., गु. बन जाती हैं। प्राकृत भाषा में ऐसे कितने ही शब्द मिलेंगे जिनमें 'उ' का 'ओ' हो जाता है अतः इस प्रकार के संशोधन से किसी प्रकार की भाषिक बाधा उपस्थित नहीं होनी चाहिए ।
भाषिक दृष्टि से समीक्षा'महाप.' में द्वितीय पाद में 'सरीरादि' पाठ है जबकि 'मूलाचार' में 'सरीराई', मध्यवर्ती 'द' के लोप का पाठ है अतः ‘महाप.' के विभक्तिरहित पाठ के बदले में विभक्तियुक्त ‘सरीरादिं' पाठ उपयुक्त लगता है। इसी संबंध में 'मूलाचार' में 'सभोयणं' के पूर्व में जो 'च' है उसको निकालकर 'सरीरादिसभोयणं' होना चाहिए या ‘सरीरादिं च भोयणं' अलग अलग होना चाहिए था । सूचित दोनों प्रकार के पाठों से छन्द में त्रुटि नहीं आती है और इस पद के वर्गों की संख्या भी आठ बन जाती है।
‘महाप.' के तीसरे पाद में ‘वय' शब्द विभक्तिरहित है अतः यहाँ पर 'वयकायेणं' की संभावना की जा सकती है और 'मूलाचार' में 'वचि' का प्रयोग भी भाषिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं ठहरता है । 'महाप.' में 'कायेणं' का जो प्रयोग है वह भाषिक दृष्टि से परवर्ती है। 'मूलाचार' का 'कायेण' पाठ प्राचीन लगता है।
अतः भाषिक और छन्द की दृष्टि से इस पद्य का मूल रूप निम्नप्रकार से रहा होगा जो परवर्ती काल में दोनों ग्रंथों में बदल गया लगता है।
बाहिरऽन्भंतरं ओवहिं सरीरादिं च भोयणं ।
मणसा वयकाएण, सव्वं तिविहेण वोसरे ॥ प्राचीन अनुष्टुप् छन्द में पद्य के किसी किसी पद में ८ के बदले में ९ वर्णों की भी परंपरा प्राप्त हो रही है यह प्रारंभ में ही स्पष्ट कर दिया गया है। ५. 'महाप.' के पद्य नं. ५ का पाठ इस प्रकार है
रागं बंधं पओसं च, हरिसं दीणभावयं ।
उस्सुगत्तं भयं सोगं, रइमरइं च वोसिरे ॥ 'आतुरप्रत्याख्यान' के पद्य नं. २३ में 'रइमरई' के बदले में 'रइं अरई' पाठ है अन्यथा पूरा पद्य 'महाप.' के पद्य के समान ही है।
'मूलाचार' का पद्य नं. ४४ इस प्रकार है
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