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________________ मुनिश्री कीर्तिमेरु विरचित चतुर्विंशतिजिनस्तवन संपादक : आचार्य विजय धर्मधुरंधरसूरिजी म.सा. संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रस्तुत स्तवन चौवीशी का संपादन कार्य विद्वान् आचार्यश्री धर्मधुरंधरसूरिजी महाराजश्री ने किया है। प्रस्तुत स्तवन चौवीशी के कर्ता मुनिश्री कीर्तिमेरु हैं। उनके जीवन के बारे में कुछ विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने अन्य कृतिओं की रचना की हो ऐसी संभावना है। पर अद्यावधि अन्य कोई कृति प्रकाशित नही हुई है। यहाँ प्रकाशित यह कृति प्रथम बार प्रकाशित हो रही है। अन्य धर्म में इष्ट देवता की प्रार्थना के रुप में स्तोत्रों की रचनाएँ हुई हैं। विभिन्न भाषा में अनेकविध स्तोत्रों की रचनाएँ होने के कारण जैन धर्म में स्तोत्र स्वयं एक विशिष्ट काव्य प्रकार हो गया है। आगमिक समय से तीर्थंकर परमात्मा की स्तुतिरूप काव्य-रचनाओं का प्रारंभ हो चुका था । लोगस्ससूत्र, नमुत्थुणं, वीरत्थुई और पुच्छिसुणं जैसे स्तोत्र जैन धर्म में अत्यंत प्रचलित हैं। तत्पश्चात् संस्कृत भाषा में भी स्तोत्र रचे जाने लगे, उसमें विद्वद्वर्यश्री मानतुंगाचार्य का भक्तिरस से सभर भक्तामर स्तोत्र जैन परंपरा का अनुपम स्तोत्र है। तद्उपरांत संस्कृत भाषा में विविध छंद एवं नानाविध अलंकारों से मण्डित स्तोत्रों की रचना हजारो की संख्या में हुई है। तत्पश्चात् अपभ्रंश एवं मध्यकाल में गुजराती भाषा में भी स्तवन, चैत्यवंदन वगैरह की रचना प्रचुर मात्रा में हुई है। इन विविध भाषाओं में निबद्ध स्तोत्रों में मुख्यतया परमात्मा के गुणों का कीर्तन एवं अपने आत्मदोषों की निन्दा यह प्रमुख विषय रहे हैं। यदाकदा स्तवनो में स्वमत स्थापन और परमत खण्डन युक्त दार्शनिक स्तोत्र भी रचे गये हैं। जब कि कुछ स्तोत्र ऐसे भी हैं जिनमें कर्ता के वैदुष्य एवं विद्वत्ता के दर्शन होते हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में उपजाति, द्रुतविलंबित, वैतालिक, वसंततिलका, इन्द्रवज्रा और वंशस्थ जैसे छन्दों का प्रयोग करके प्रत्येक तीर्थंकरो की स्तवना की गई है । चौवीश तीर्थंकरों की स्तवना पाँच पाँच श्लोक से की गई है। केवल अठ्ठारहवें तीर्थंकर अरनाथ भगवान् की स्तवना का तीसरा श्लोक उपलब्ध नहीं है। इस ग्रन्थ का संपादन एक मात्र उपलब्ध प्रति के आधार पर किया गया है। प्रस्तुत स्तवनों में योगमार्ग के द्वारा आत्मकल्याण की चर्चा की गई है। प्रारंभ में सर्वश्रेष्ठ योगी के रुप में तीर्थंकर परमात्मा को स्थापित करके प्रत्येक स्तवन में योग की विभिन्न भूमिकाओं की चर्चा की गई है । यद्यपि ग्रंथ कर्ता मुनिश्री कीर्तिमेरु के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होते हुए भी प्रस्तुत कृति के आधार पर इतना तो भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि वे योगमार्ग के विशेष अभ्यासी साधक रहे होंगे। उनकी उन्य कृति के बारे में खोजबीन होती रहे और वे भी प्रकाश में आये तो साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट प्रदान होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520774
Book TitleSambodhi 2001 Vol 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages162
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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