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Vol. XXIII, 2000 काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में 'सेतुबन्ध' के कतिपय उद्धरण... (भारतीय विद्या. में वुढो पाठान्तर है, डॉ. बसाक में भी वही है।)
तद्दयिताभिज्ञानं यस्मिन्नप्यङ्गे राघवेण न न्यस्तम् ।
सीतापरिमृष्टेनैवोढस्तेनापि निरन्तरं रोमाञ्चः ॥ भोजने इस पद्य को प्रभावातिशय नामक अतिशयोक्ति अलंकार के एक भेदरूप में उदाहृत किया है। प्रिया का अभिज्ञान होने से रोमांचादि क्रियाविशेष उत्पन्न हुआ है, वही क्रियातिशयोक्ति का भेद है।
तह णिमिअच्चिअ दिट्ठि मुक्ककवोलविहुरो उरच्चेअ करो। गअजीविअणिच्चट्ठा णवरत्था महिअल थणभरेण गआ ॥१४ (सेतु. ११/६८) तथा नियोजितैव दृष्टिर्मुक्तकपोलविधुर उरस्येव हस्तः ।
गतजीवितनिश्चेष्टा केवलं सा महीतलं स्तनभरेण गता ॥ ___ सा.मी.कार ने प्रस्तुत पद्य णकओ. इत्यादि की तरह मूर्छा के (= प्रलय) उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।
ते विरला सप्पुरिसा जे अभणन्ता घडन्ति कज्जालावे । थोअच्चिअ ते वि दुमा जे अमुणिअकुसुमणिग्गमा देन्ति फलम् ॥ (सेतु. ३/९) ते विरलाः सत्पुरुषा येऽभण्यमाना घटन्ते कार्यालापम् ।
स्तोका एक तेऽपि द्रुमा येऽज्ञातकुसुमनिर्गमा ददति फलम् ॥ भोज ने प्रस्तुत उद्धरण उभयन्यास और अर्थान्तरन्यास का अभेद बताने के लिए उटूंकित किया है।
अत्र हेतुहेतुमद्भावपुरस्कारेणोभयोरूपन्यासः । (पृ. ५०३) रामदास भूपति यहाँ अर्थान्तरन्यास कहते हैं ॥१५
'सेतुतत्त्वचन्द्रिका' में यहाँ पर प्रतिवस्तूपमा माना है। यथा - ___ अत्र प्रतिवस्तूपमामाह-स्तोका एव ते द्रुमा येऽज्ञातकुसुमनिर्गमाः कुसुमेनासूचितफलाः फलं ददति । (पृ. ५६) इस टीका में 'ये अभणेन्ता.' पाठ है। प्रॉ. हेन्दीक्वी संपादित आवृत्ति में पीछे दिये गये विवरण में सेतु.की विविध टीकाओं के विवरण निर्दिष्ट है। जिसमें कुलनाथ नामक टीकाकार 'सेतुतत्त्वचन्द्रिका' की तरह प्रतिवस्तूपमा अलंकार मानतें हैं -
अत्र प्रतिवस्तूपमामाह-स्तोका एव तेऽपि द्रुमा ये अज्ञातकुसुमनिर्गमाः कुसुमेनासूचितफलाः फलं ददति । (notes P. 234)