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पारुल मांकड
मरणे बान्धवानां जनस्य किं भवति बान्धव एव शरणम् । तथा गुरुशोककवलिता धरायां पतिता विमूर्छिता धरणिसुता ॥
अत्र काव्यलिंग रसाभिव्यक्ति में सहायक हो रहा है। सीता की मूर्च्छावस्था का निरूपण अति मार्मिक है ॥७
ण कओ वाहविमुक्खोणिव्वण्णेउंपि ण चइअं रामसिरम् ।
णवर पडिवण्णमोहा गअजीविअणीसहा महिम्मि णिसण्णा ॥ ( सेतु. ११/६६ )
न कृतो बाष्पविमोक्षो निर्वर्णयितुमपि न शकितं रामशिरः ।
केवलं प्रतिपन्नमोहा गतजीवितनिः सहा मह्यां निषण्णा ॥
यहाँ 'कुमारसम्भव' के 'रतिविलाप' का दृश्य भावकों के मानसपट पर उभर आता है ।
७५ से ८६ पद्यों तक सीताजी का विलाप है । कुछ अंश
SAMBODHI
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णवरि अ पसारिअङ्गी रअभरिउप्पहपइण्णवेणीबन्धा ।
पडिआ उरसंदाणिअमहीअलचक्कलिअत्थणी जणअसुता ॥ (सेतु. ११/६८) अनन्तरं च प्रसारिताङ्गी रजोभृतोत्पथप्रकीर्णवेणीबन्धा । पतितोरः संदानितमहीतलवक्रीकृ तस्तनी जनकसुता 11 तो ११/७५ में रूपकालंकार है -
आवाअभअअरं चित्रण होइ दुक्खस्स दारुणं णिव्वहणम् । जं महिलावीहत्थं दिट्ठ सहिअं च तुह मए अवसाणम् ॥ आपातभयंकरमेव न भवति दुःखस्य दारुणं निर्वहणम् । यन्महिलाबीभत्सं दृष्टं सोढं च तव मया अवसानम् ॥
इत्यादि पद्यो में अनुप्रास, उपमा उत्प्रेक्षा आदि अलंकार अभिनवगुप्त के शब्दों से कहें तो 'अहमहमिकया' दौडे आये हैं । ये अलंकार सहजरूप से करुणविप्रलंभ के निरूपण के साथ साथ सृजित होने से रस के अंतरंग बने हैं, मानों कर्ण के दिव्य कवचकुण्डल की तरह रस के जन्म के साथ ही प्रादुर्भुत हुए हैं । १०.
अब हम सेतुबन्ध के कुछ ओर उद्धरण को 'अ' कारादि क्रम से और आलंकारिकों को समयानुक्रम से निर्दिष्ट करें -
अव्वोच्छिण्णपसरिओ अहिअं उद्घाइ फुरिअसूरच्छाओ ।
उच्छाहो सुभडाणं विसमक्खलिओ महाणईण व सो त्तो ॥ (सेतु. ३/१७)