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ol. XXIII, 2000
काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में 'सेतुबन्ध' के कतिपय उद्धरण...
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अर्थात् ध्वनिकाव्य में वही 'अलंकार' अलंकार कहलाता है, जिसकी निरूपणा रस के साथ साथ ही ती है, उसके लिए कवि को अलग से यत्न करना नहीं पडता ।
आनन्दवर्धन विविध उदाहरणों का निर्देश कर के रस के अंतरंगभूत अलंकारों को स्पष्ट करते समय सेतुबन्ध' और 'कादम्बरी' का उल्लेख करतें हैं । यथा
अलङ्कारान्तरेष्वपि तत्तुल्यमिति चेत्, नैवम् । अलङ्कारान्तराणि हि निरूप्यमाणदुर्घटनान्यपि असमाहितचेतसः प्रतिभानवतः कवेरहम्पूर्विकया परापतन्ति । यथा कादम्बर्यां कादम्बरीदर्शनावसरे, यथा च यारामशिरोदर्शनेन विह्वलायां 'सीतादेव्यां सेतौ' । - ध्वन्या. २/१७ उपरि.
अर्थात्
अन्य अलंकार अलंकार-निरूपण की स्थिति में दुर्घटन होने पर भी रस में
= रसमय रचना करने
विघ्न नहीं डालते । क्योंकि रससमाधि में ही समाहित चित्तवाले एवं प्रतिभासंपन्न कवि के पास वे
हमहमिका अर्थात् मैं पहले, मैं पहले ऐसा करके दौड़ पड़ते हैं । जैसे कि, 'कादम्बरी' में कादम्बरी के र्शन के अवसर में | जैसे 'सेतु' (= सेतुबन्ध महाकाव्य) में रावण की माया शक्ति से बने हुए राम के टे हुए सिर को देखने से सीता देवी के विह्वल होने पर |
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आनन्दवर्धन ने निर्देशमात्र दिया है, 'सेतु' के कोई ख़ास उदाहरण नहीं दिये ।
. अधुना 'सेतु . ' का मायाराम शिरोदर्शन प्रसंग अवलोकित करें -
श्रीराम के मायाशिश को देखते ही सीताजी बेसुध हो कर भूमि पर गिर पडी । अत्यंत सहज निरूपण
पडिआ अ हत्थसिढिलिअणिरोहपण्डरसमूलसत्तकवोला ।
पेल्लिसअवामपओहरविसमुण्णअदाहिणत्थणी जणअसुआ ||६|| (सेतु. ११ / ५४)
छाया
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यथा
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निम्नांकित पद्य में करुणविप्रलंभ के साथ चमत्कृतिपूर्ण स्वभावोक्ति और अनुप्रास आदि की संरचना लती है।
पतिता च हस्त शिथिलितनिरोधपाण्डुर समुच्छ्वसत्कपोला । प्रेरितवामपयोधरविषमोन्नतदक्षिणस्तनी जनकसुता ॥
मरणम्मि बन्धवाणं जणस्स किं होइ बन्धवोचिअ सरणम् ।
तह गुरुसो कवलिआ धरम्मि पडिआ विमुच्छिआ धरणिसुआ ॥ ( सेतु. ९९/५५)