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________________ आचार्य विश्वेश्वर के 'अलंकार - प्रदीप' में सादृश्यमूलक अलंकारों का निरूपण पारुल मांकड आचार्य विश्वेश्वर ने अलकार - निरूपण के लिए तीन ग्रन्थों की रचना की है। उनमे 'अलकार- मुक्तावली' और 'अलकार-प्रदीप' कुवलयानन्द की तरह सुबोध शैली में रचें गए हैं । उनकी यशोदा कृति 'अलकार - कौस्तुभ' ही है, जिस में पंडितराज जगन्नाथ की तरह नव्यन्याय शैली में खण्डन - मण्डन - सह अलकारों का विमर्श निरूपित है । प्रस्तुत शोधपत्र में 'अलकार - प्रदीप' में निरूपित सादृश्यमूलक अलंकारों का सक्षिप्त विवेचन किया गया है । 'अलकार - प्रदीप' में केवल अर्थालंकारों का ही निरूपण है । आचार्य विश्वेश्वर ने अपने पूर्वाचार्य रुय्यक और शोभाकर मित्र के समान सूत्रात्मक निरूपणपद्धति स्वीकार की है । प्रत्येक सूत्र में तद् तद् अलकार-लक्षण निबधित है तथा छोटी-सी वृत्ति में उसका विवरण दिया गया है। आचार्य विश्वेश्वर ने स्वय कोई वर्गीकरण नहीं दिया, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए अलकार के सुप्रसिद्धि ७ वर्गों में हुए विभाजन को ध्यान में रखते हुए प्रथम वर्ग सादृश्यमूलक वर्ग के अर्थाकारों की समीक्षा यहाँ प्रस्तुत है । सादृश्यमूलक अलकारों में विश्वेश्वर ने भी प्रथम क्रम उपमा को ही सादर दिया है । उनका उपमा-लक्षण जगन्नाथ के उपमा-लक्षण से प्रभावित है । 'चमत्कार - प्रयोजकं सादृश्यवर्णनमुपमा' ।१ ( पृ० - १) तुलना करें—सादृश्य सुन्दरं वाक्यार्थापस्काकर उपमालकृति । (रु ग. २/१) विश्वेश्वर ने 'चमत्कार' शब्द पर बल दिया है । उपमा का भेदोपभेद निरूपण विशेषतः मम्मटानुसारी है । परतु धर्माभिधान के आचार्य ने षट् प्रकार प्रदर्शित किये हैं । साधारणधर्म षड्विध होता है, जैसे (१) उपचारमूलक (२) अनुगामी, (३) समासभेदयुक्त (४) श्लेषयुक्त (५) बिम्बप्रतिबिम्बभावयुक्त और (६) वस्तुप्रतिवस्तुभावयुक्त ।" इस तरह विश्वेश्वर ने उपचारमूलक, समासभेदयुक्त और श्लेषयुक्त ये तीन नूतन प्रकार अपनी ओर से जुडै हैं । लुप्तादि का निरूपण पूर्वाचार्यों के ही आधार पर किया गया है । ( पृ० २,३) परिणाम अलंकार में आरोप्य का प्रकृतोपयोगित्व उन्होंने रुय्यक और विश्वनाथ की ही तरह स्वीकार किया है । (सूत्र - २) शोभाकर मित्र का अनुसरण करते हुए उन्होंने उदाहरण अलंकार स्वीकार किया है । (पृ. ७) जो जगन्नाथ ने भी निरूपित किया है । | अनन्वय का लक्षण कुछ क्लिष्ट सा हो गया है उपमेय और उपमान की) एकता अनन्वय अलंकार है । उपमान और उपमेय में ज्ञायमान की (= । ज्ञायमान का अर्थ वृत्ति में स्पष्ट करना
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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