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________________ Voll XXII, 1998 आचार्य विश्वेश्वर के 153 चाहिये था । लेकिन इस सूत्र की वृत्ति ही नहीं है । ज्ञायमान ऐक्य का अर्थ उपमेय/उपमान की रूपता हो सकता है । यहाँ उदाहरण में इव शब्द का प्रयोग उपमान और उपमेय का ऐक्य स्पष्ट करता है। (द्रष्टव्य, अंतिम पद्यांश-लोकेऽस्मिन्वरवणिनि । त्वमिव मे सत्य त्वमाभाससे ॥ (पृ. ५) शोभाकर और जगन्नाथ का अनुसरण करते हुए उन्होंने सर्वथा उपमान के निषेध को असम माना है । परस्पर के सादृश्य को उपमेयोपमा स्वीकार किया है । अनन्वय, असम और उपमेयोपमा का आपस में सूक्ष्म भेद विश्वेश्वर ने निश्चित किया है, वह सचमुच सराहनीय है। विश्वेश्वर ने मम्मट की तरह उत्प्रेक्षा में सम्भावनापक्ष पर ही बल दिया है, रुय्यक के अध्यवसान पक्ष पर नहीं । स्वरूप हेतु और फल मुख्य तीन ही प्रकार गिनाये हैं । सादृश्य-निबन्धन में प्रकृत अर्थात् उपमेय में जो सशय है उसे सन्देह कहते है। यहाँ विश्वेश्वर ने मम्मट का अनुसरण किया है और वितर्क -विकल्प का आरोप-स्वरूप निरूपण सन्देह है, ऐसा वृत्ति में स्पष्ट किया है, वृत्ति में अधूरापन है। कदाचित् विश्वेश्वर सन्देह में वितर्क और विकल्प दोनों का स्वीकार करते है। वे केवल विषय को ही सन्देहास्पद मानते है, अल. स. कारने विषयी अर्थात् उपमान को भी सन्देहास्पद स्वीकार किया था । (अल. प्र. सू. ८ की वृत्ति अल. स. सूत्र १८) रुय्यकादि के जो निश्चयगर्भ अथवा निश्चयमध्य संदेहालकार है, वह अलकार-प्रदीप में वितर्कालकार नामक स्वतत्र अलकार स्वीकार किया गया है । लक्षण में स्पष्टरूप से निर्देश दिया है कि 'सशयोत्तरमनिर्णये ऊहो वितर्कः ।। (सू.-९ पृ.१०) शोभाकर ने भी वितर्क को अलग अलकार स्वीकार किया है परत उन्होंने 'अपोह' पर बल दिया है, विश्वेश्वर ने ऊह-तर्क पर । (द्रष्टव्य, अल. २, पृ. ४५, अल. प्र. पृ. ११) विकल्प अलंकार में विश्वेश्वर को रुय्यक-जयरथ की तरह पाक्षिकी प्राप्ति स्वीकार्य है, (सू. १) किन्तु उन्होंने औपम्यगर्भ चारुत्व का कोई उल्लेख नहीं किया जो विकल्प के लिए पूर्वाचार्यों ने अनिवार्य समझा है। एक बात और भी है कि विकल्प वाक्यन्यायमूलक अलकार है, विश्वेश्वर ने सादृश्यमूलक अलकारों के अतर्गत उसको सूत्रित किया है । रूपक-निरूपण पूर्वाचार्यों के अनुसार ही है, (सू. ११) आरोप का स्वीकार भी है, और सावयव और निरवयव दो भेदों का स्वीकार है । रत्नावली अलंकार दीक्षितजी के आधार पर सूचित किया है । अपहृति में विश्वेश्वर ने प्रकृत के निषेध पर बल दिया है । अत: लक्षण सपूर्णरूप से मम्मटानुसारी है । (सूत्र १३) __ शोभाकर और जयरथ की तरह विश्वेश्वर ने 'निश्चय' अलकार को स्वतत्र अलकार स्वीकार किया है परतु उदाहरण में अपहति की स्पष्ट छाया है । (पृ. १७)
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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