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________________ 149 I XXII, 1998 "शाकुन्तल" के विदूषक की उक्तियाँ कृत उक्तियाँ होती है, उसमें प्रादेशिक बोली के प्रचलित शब्दों को लेकर अनेकस्थान पर परिवर्तन ये गये है । [ इस सन्दर्भ में स्मर्तव्य है डॉ. ए. बी. कीथ का यह विधान :- we must hold at neither recension of Kalidasa's Sakuntala is of conclusive value] विदूषक की उक्तियाँ में से लेकर यहाँ पर जिन पाठान्तरों की चर्चा की गई है उससे यह ष्ट रूप से प्रतीत होता है कि (क) कदाचित् रङ्गक्षमता बढाने के लिए, (ख) एव हास्यनिष्पत्ति ने के लिए, तथा (ग) कुत्रचित् प्रादेशिक बोली भाषा में जो शब्द प्रचलित रहा होगा उसका स्वीकार करके विदूषक की उक्तियों में पाठ-परिवर्तन किया गया है । पाठान्तरों के उद्भवहेतु अन्य / अधिक भी हो सकते है । ( लेकिन विस्तरभय से हम प्रस्तुत विषय का उपसंहार ते है 1) २० उपर्युक्त पाठान्तरों का तुलनात्मक अभ्यास करके, टीकाकारों के पास जो पाठपरम्परा क्रमित हुई दिखाई पडती है उसका वंशानुक्रम अब समीक्ष्य है : २१ (क) काश्मीरीवाचना, मैथिली वाचना और बंगाली वाचना जहाँ पर एकरूप है-समानऐसे वाक्यों (अय वराहो) १.१ एव ( स्त्रीरत्नपरिभोगिनः ) १५ 1 (ख) उपर्युक्त दोनों सन्दर्भों में देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचना का पाठ एक समान है : नय शार्दूलः' इतना अधिक पाठ १.१ में है, और १५ में 'स्त्रीरत्नपरिभाविनः' ऐसा पाठान्तर I (ग) कुत्रचित् ऐसा भी प्रमाण मिलता है कि काश्मीर की वाचना और दाक्षिणात्य वाचना पाठ में समानता है। जैसे कि १३ में 'बाणासनहस्ताभिः यवनीभिः' वाला पाठ सभी दाक्षिणात्य काकारों ने, और देवनागरी वाचना के टीकाकार राघव भट्टने भी स्वीकारा है। तथा १७ में दिखाई ना हुआ 'बिन्दुरपि नावशेषितः ' वाला पाठ्यांश काश्मीरी वाचना और दाक्षिणात्य वाचनाओ में, तथा घवभट्ट में भी एक समान है । इस का सम्भवतः ऐसा कारण हो सकता है कि वह पाठ या तो दाक्षिणात्य / देवनागरी चना से काश्मीरी वाचना में गया होगा अथवा तो काश्मीरी वाचना से शुरु हुआ यह पाठान्तर [क्षिणात्य पाठ परम्परा में और देवनागरी वाचना में भी सक्रान्त हुआ होगा । इतने अश में इन तीनों चनाएँ संमिश्रित पाठपरम्परावाली दिखाई पड़ती है | तथा पाठान्तरों के आदान-प्रदान का केन्द्र कश्मीरी वाचना हो सकती है ॥ (घ) दाक्षिणात्य वाचना के अभिराम और चर्चाकार जैसे दो टीकाकार कुत्रचित् स्वतंत्र पाठ देते है । उदाहरण के रूप में १२ में 'उदरस्य अधन्यतया', तथा १६ में 'अनुपसर्ग पोवनमिति' वाला पाठान्तर ॥ इस समीक्षण को एक चित्र से स्पष्ट किया जाय तो 'अभिज्ञानशाकुन्तल' की विभिन्न {चनाओं और उनके टीका-टिप्पणकारों द्वारा स्वीकृत पाठपरम्परा का वंशवृक्ष निम्नोक्त रूप का हो नकता है . :
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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