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SAMBODHI
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वसन्तकुमार म भट्ट में हो तो सुसगत लगेगा । यहाँ पर नाटक में, और वह भी कालिदास के नाटक में अस्वाभाविक लगता है। एवं यह भी ध्यानास्पद है कि मैथिली वाचना का अनुसरण करनेवाला टीकाकार शकर भी 'अप्सरसा' वाला पाठ ही स्वीकारता है ॥ एवमेव बगालीवाचना में आया हुआ 'अच्छभल्ल' शब्द भी प्रक्षिप्त लगता है, कालिदासने तो द्वितीय अङ्क में 'जीर्ण-ऋक्ष' शब्द रखा था । और नरहरि को छोडकर और कोई व्याख्याकार ने उसको स्वीकारा नहीं है।
____वीतरागस्येव' के स्थान पर आया हुआ 'अवीतरागस्येव' पाठान्तर भी पश्चाद्वर्ती काल का हो सकता है। जिस में श्रमणों की और से आक्षेप को हटाया गया है । अतः यह भी प्रादेशिक पाठपरिवर्तन की चेष्टा हो सकती है ।
९ षष्ठ-अङ्क में मातलि के द्वारा पकडा गया, विदूषक अपने को 'बिडालगृहीत मूषक' की उपमा देता है :
A मज्जारगहिदो विअ उन्दुरो णिरासो म्हि जीविदे। (मार्जारगृहीतः इव उन्दुरः निराशोऽस्मि जीविते) - पिशेल, ९१ B मार्जारगृहीत इवोन्दुरुनिराशोऽस्मि जीविते । - शंकर, २८० C मार्जारगृहीत उन्दुर इवानीशोऽस्मि जीविते .। - नरहरि, ३५९ D मार्जारगृहीत इव उन्दुरो निराशोऽस्मि जीविते सवृत्तः ।।
-काश्मीरी, पृ. ११९ E बिडाल गृहीतो मूषिक इव निराशोऽस्मि जीविते संवृत्तः । - काट्यवेम, पृ. १५१ F पाठ्याशः अनुपलब्धः । - चर्चा, पृ. २०५. G वाक्यमिद नैव व्याख्यातम् । - अभिराम, पृ. २७९ H बिडालगृहीतो मूषक इव निराशोऽस्मि जीविते सवृत्तः । - घनश्याम, पृ. २३७ I बिडालगृहीतो मार्जारगृहीतो मूषिक इव निराशोऽस्मि जीविते संवृत्तः । - राघवभट्ट, पृ. ३९४ J मौनम् । - श्रीनिवास, पृ. ३९४
यहाँ पर पूर्वोत्तर भारत में प्रचलित बंगाली, मैथिली एवं काश्मीरी वाचनाओं में जो 'उन्दुर/ उन्दुरु' शब्द मिलता है, वह ध्यानास्पद है। यहाँ पर 'मार्जार' शब्द तो संस्कृत है, और उसे बिना कोई परिवर्तन अपनाया गया है । परंतु यह जो 'उन्दुर' या 'उन्दुरु' शब्द है वह देश्य शब्द है और उन प्रान्तों में प्रचलित मूषक-जन्तु का जो प्रादेशिक 'उन्दुर' ऐसा नाम प्रसिद्ध होगा उसका प्रयोग किया गया है।
देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं में एव टीकाकारों ने 'मूषक' या 'मूषिक' ऐसा संस्कृत शब्द अपरिवर्त्य रखा गया है, और 'मार्जार' शब्द का त्याग करके, उनके स्थान पर "बिडाल' जैसा देश्य-प्रादेशिक-शब्द रख लिया है । इस उदाहरण से यह सिद्ध होता है कि जो विदूषकादि की