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Vol XXII, 1998
"शाकुन्सल" के विदूषक की उक्तियाँ. उनमें से "बिन्दु' शब्द को भी हट दिया होगा |
८ पञ्चम अङ्क के आरम में जब दूष्यन्त विदूषक को हंसवती । हसपदिका के पास भेजता है तब वह बोलता है कि -
A गहिदो तए परकेरएहि हत्थेहि सिहण्डए अच्छभल्लते । ता अवीदराअस्स विअ समणस्स णत्थि दाणि मे मोक्खो ।
- पिशेल, पृ. ५९ __(गृहीतस्त्वया परकीयैः हस्तैः शिखण्डके अच्छभल्लः ॥ तत् अवीतरागस्य इव श्रमणस्य नास्तीदानी मे मोक्षः ।)
B गृहीतस्तया परकीयैर्हस्तैः शिखण्डके अच्छमल्लः । विगतरागस्येव अप्सरसा गृहीतस्य नास्ति मे मोक्षः ।
- शकर, पृ. २५४-२५५ ___C गृहीतस्तया परकीयैर्हस्तैः शिखण्डके अच्छभल्लः । अविगतरागस्यापि सुजनस्य नास्ति मे मोक्षः ।
(नरहरि, पृ. ३४०) D गृहीतस्य तया परकीयैहस्तैः शिखण्डके अप्सरसा वीतरागस्येव नास्ति मे मोक्षः ।
-काश्मीरी, पृ. ७७ ___E गृहीतस्य तया परकीयैर्हस्तैः शिखण्डके अप्सरसेव वीतरागस्य नास्ति मे मोक्षः । काट्यवेम,
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F गृहीतस्य तया परकेरकाभ्या हस्ताभ्या शिखण्डाञ्चले अप्सरसा वीतरागस्येव नास्तीदानी मे मोक्षः ।
- चर्चा, पृ. १६४ G परकेरकैः परकीयैः ।. शिखण्डाश्चले शिखण्डाने । वीतरागस्य तपस्विनः । मोक्षः मोचनम् ।
- अभिराम, १९०. H गृहीतस्य तया परकीयाभ्या हस्ताभ्या शिखण्डेऽप्सरसेवावीतरागस्य नास्ति मे मोक्षः । -
घनश्याम, १६९. I. गृहीतस्य तया परकीयैर्हस्तैः शिखण्डके अप्सरसा वीतरागस्येव नास्तीदानी मोक्षो मोचनं कैवल्य च ।
- राघवभट्ट, पृ. २८७ J मौनम् ।
- श्रीनिवास, पृ. २८७ यहाँ पर काश्मीरी. देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं में 'वीतरागस्येव अप्सरसा वाला पाठ प्रसिद्ध है और जो सन्दर्भानुसारी ही है । विदूषक अपने को 'वीतराग' जैसा कहता है । क्योंकि उसके मन में अंशमात्र भी स्त्री-आसक्ति नहीं है और सामने जो हसपदिका है वह अप्सरा जैसी है, जो वीतराग ऋषि को पकडनेवाली-अनुरक्त करनेवाली-होती है ! तो यह उपमा कालिदासीय ही है। परंतु बंगाली वाचना का पाठ कुछ अपपाठ जैसा लगता है। क्योंकि 'अवीतरागस्य इव श्रमणस्य' में श्रमणसम्प्रदाय के यति की और जरूर आक्षेप है, लेकिन वह प्रहसन या भाण प्रकार के रूपक