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146 वसन्तकुमार म भट्ट
SAMBODHI है । लेकिन बंगाली एवं काश्मीरी इन दोनों वाचनाओं में राघवभट्ट द्वारा प्रदर्शित उद्देश्यविधेय भाव का भग परिहत करने का प्रयास हो सकता है ।
७ द्वितीय अङ्क के अत में विदूषक के मन में शकुन्तला के रूपातिशय को देखने की इच्छा-कौतुक-हैं या नहीं । इस प्रश्र का उत्तर देते हुए विदूषक कहता है कि -
A पढम अपरिबाध आसि । सपद रक्खसवुत्तन्तेण सपरिबाध । - पिशेल, पृ. २५ (प्रथमपरिबाधमासीत् । साप्रत राक्षसवृत्तान्तेन सपरिबाधम् ।)
B प्रथममपरिबाधमप्रत्यूहमासीत् साम्प्रत राक्षसवृत्तान्तेन सप्रत्यूहं सविघ्न कुतूहलमिति । - शकर, पृ. २०५
C प्रथममनपबाधमासीत् साम्प्रतं राक्षसवृत्तान्तेन सापबाध कौतूहलम् । - नरहरि, पृ. ३१६
D प्रथम सपरिवाहमासीत् । राक्षसवृत्तान्तेन पुनः साप्रत बिन्दुरपि नावशेषितः । - काश्मीरी, पृ. ३८
E प्रथम सपरिवाहमासीत् । इदानीं राक्षसवृत्तान्तेन बिन्दुपि नावशेषतः । - काट्यवेम, पृ. ५० F प्रथम सपरिवाहमासीत् । राक्षसवृत्तान्तेन पुनरस्य बिन्दुरपि नावशिष्टः । - चर्चा, पृ. १०४ G सपरिवाहमासीत् बिन्दुः तस्य लेशः ।
-अभिराम, पृ. १०३ H प्रथम सपरिवाहम् आसीदिदानीं राक्षसवृत्तान्तेन पुनरस्य बिन्दुरपि नावशेषितः । - घनश्याम, पृ. ११९
। प्रथम सपरिवाहमासीत् । इदानीं राक्षसवृत्तान्तेन बिन्दुरपि नावशेषितः । - राघवभट्ट, पृ. १६८
_J प्रथम, सपरिवाह बिन्दुरपि बिन्दुमात्रमपि । - श्रीनिवास, पृ. १६८ ___ यहाँ पर बगाली एव मैथिलीवाचना में विदूषक कहता है कि पहेले तो शकुन्तला को बिना कोई विघ्न देखना था, लेकिन अब राक्षसों का वहाँ होना सून कर लगता है कि कोई विघ्न के साथ ही शकुन्तला को देखनी होगी। दूसरी और काश्मीरी, देवनागरी एव दाक्षिणात्य वाचनाओं में विदूषक की उक्ति है कि पहेले तो शकुन्तला को देखने का कुतूहल (नदी के) परिवाह की तरह था । लेकिन राक्षसवृत्तान्त को सून कर मेरे मन में अब कौतूक का एक बिन्दु भी अवशिष्ट नहीं रहा है। इस उक्ति में से विदूषक का भीरु स्वभाव भी उभर कर बहार आता है और सामाजिकों को हास्य मिलता है।
सभव है कि यहाँ विदूषक की उक्ति में जो शब्द 'सपरिवाहम्' है, उसमें 'व' कार का 'ब' कार, और 'ह' कार का 'घ' कार करने के बाद - अर्थात् 'सपरिवाहम्' का 'सपरिबाधम्' ऐसा अनुवाद होने के बाद - बंगाली वाचना का अनुसरण करनेवाले पाण्डुलिपियाँ के लेखकों ने