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VoI XXII, 1998 "शाकुन्तल" के विदूषक की उक्तियाँ
145 का 'तिन्त्रिण्याम् अभिलाषः' कैसे हो सकता है ? ऐसा सोचा होगा उन्होंने, उसे बदल कर 'स्त्रीरत्नपरिभाविनः' बनाया होगा । ऐसा करने पर भी 'पिण्डखजूर के भोक्ता' के साथ अन्वय बन जाता है । और, यह भी ध्यानास्पद है कि 'स्त्रीरत्नपरिभाविन' वाला पाठ ही दुष्यन्त की भ्रमरवृत्ति को ध्वनित करने में समर्थ है । अतः यही पाठ आन्तरसम्भावनायुक्त कहा जायेगा |
६ द्वितीय अङ्क में दुष्यन्त का प्रेमप्रकरण सुनने के बाद विदूषक बताता है कि - A गहिदपाधेओ किदो सि ताए । ता अणुरत तवोवणेतुम तक्केमि । (पिशेल, पृ. २३) (गृहीतपाथेयः कृतोऽसि तया । तत् अनुरक्त तपोवने त्वा तर्कयामि ।) B गृहीतपाथेयो भवान् कृतस्तयेति । अनुरक्त तपोवनमिति तर्कयामि । - शकर, पृ. २०३
C गृहीतपाथेयो भवान् कृतस्तया । अनुरञ्जित त्वया तपोवनमिति तर्कयामि । - नरहरि, पृ. ३१६
D भो गृहीतपाथेयो भव । कृतं त्वयानुरूप तपोवनमिति तर्कयामि । - काश्मीरी, पृ. ३५ E यद्येव गृहीतपाथेयो भव । कृत त्वयोपवन तपोवनमिति पश्यामि । - काट्यवेम, पृ. ४७ F तहिं गृहीतपाथेयो भवसीति । अनुपसर्ग निरूपद्रवम् । - चर्चा, पृ. १०० G यद्येव गृहीतपाथेयो भवसि कृत त्वयानुपसर्ग तपोवनमिति पश्यामि । - अभिराम, पृ. ९७ H यद्येव गृहीतपाथेयो भव । कृत त्वयोपवन तपोवनमिव पश्यामि । - धनश्याम, पृ. ११६ I तेन हि गृहीतपाथेयो भव । कृत त्वयोपवन तपोवनमिति पश्यामि । - राघवभट्ट, पृ. १६० J गृहीतपाथेयो भवेत्यनेन तपोवनमुपवनमिति अनेन शातिप्रधाने । - श्रीनिवास, पृ. १६०
उपर दाक्षिणात्य वाचना के चार व्याख्याकारों ने "गृहीतपाथेयो भव, कृत त्वया उपवन तपोवनमिति पश्यामि ।" वाला पाठ स्वीकारा है । यहाँ पर विदूषक दुष्यन्त को एक सलाह देता है कि - यदि शकन्तला में तम अनुरक्त हए हो तो तुम्हारी यह आखेटयात्रा लम्बे दिन चलेगी, और मार्ग में पाथेय की जरूरत होगी, सो उसे इकट्ठा कर लो । एव वह दुष्यन्त को अभिनन्दन भी देता है कि तुमने तपोवन को उपवन बना दिया है । यद्यपि राधव भट्ट के मतानुसार 'कृत त्वयोपवन तपोवनम् इति' इस वाक्य में "उद्देश्यविधेयभावे व्यत्ययो ज्ञेयः" (पृ. १६०) अर्थात् उद्देश्य रूप 'तपोवन' का और विधेय रूप 'उपवन' का पदक्रम विपरीत हो गया है । तथापि वह विशेष वाक्भंगी से बोलने पर अभीष्टार्थ की प्रतीति करायेगा । इस सन्दर्भ में दाक्षिणात्य पाठपरम्परा का अनुसरण करनेवाले अभिराम एव चर्चा टीकाकार ने जो पाठान्तर स्वीकारा है, वह प्रसगानुरूप नहीं दिखाई पडता । दूसरी और बगाली वाचना का पाठान्तर सन्दर्भानुसारी होते हुए भी सरल है। उसमें विदूषक के व्यक्तित्व की कोई आभा प्रतिबिम्बित नहीं होती है। शंकर के द्वारा प्रदर्शित उत्तरार्ध का वाक्य किसी भी तरह से चारु अर्थवाला नहीं है। नरहरि ने तया के उपरान्त 'त्वया' शब्द को भी उत्तरार्ध में रखकर परिशुद्धवाक्य बनाया है। काश्मीरी वाचना का पाठ भी विदूषक के व्यक्तित्व के अनुरूप