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वसन्तकुमार म भट्ठ
SAMBODHI
५ विदूषक को जब ज्ञात होता है कि राजा दुष्यन्त कोई आश्रमनिवासिनी तापसकन्या में अनुरक्त हुआ है तो वह कहता है कि
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A भो । जधा कस्स वि पिण्डखज्जूरेहिं उव्वेइदस्स तिन्तिडिआए सद्धा भोदि तथा अन्तेउरइत्थीरदणपरिभोइणो भवदो इअ पत्थणा । - पिशेल, २२
(भोः यथा कस्यापि पिण्डखर्जूरैः उद्वेजितस्य तिन्तिडिकायाम् श्रद्धा भवति, तथा अन्तःपुरस्त्रीरत्न परिभोगिनः भवतः इय प्रार्थना 1)
B
तिन्तिडाभिलाषो भवति तथा स्त्रीरत्नपरिभोगिनो भवत इयमभ्यर्थना । C तिन्तिलिकाभिलाषो भवति तथा स्त्रीरत्नहारिणो भवत इयमभ्यर्थना ।
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- नरहरि, पृ. ३१४
तन्तिडिक्यामभिलाषो भवति तथा स्त्रीरत्नपरिभोगिनो भवत इय प्रार्थना । काश्मीरी, ३३ तिन्त्रिणीफले अभिलाषो भवेत्, तथा स्त्रीरत्नपरिभाविनो भवत इयम् अभ्यर्थना । पृ. ४४
चर्चा, पृ. ९४
F अत्र बहुत्व तिन्त्रिण्यामेकत्व च विवक्षितम् । स्त्रीरत्नपरिभाविन इति । - तिन्त्रिणीफलेऽभिलाषः स्त्रीरत्नानि परिभवितुमतिपरिचयादवज्ञातु शीलवतः ।
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अभिराम, पृ. ९०
H तिन्त्रिण्याम् अभिलाषो भवेत्तथा स्त्रीरत्नपरिभाविनो भवत इयमभ्यर्थना । - घनश्याम, ११३. I तिन्तियां चिञ्चायामभिलाषो भवेत्तथा स्त्रीरत्नानि परिभवितुं तिरस्कर्तुं शील यस्य तस्य भवत इयमभ्यर्थना । - राघवभट्ट, पृ. १५०
J तित्रियाम् । - श्रीनिवास, पृ. १५०
यहाँ पर दो शब्दों के पाठान्तर समीक्ष्य है : (क) 'तिन्तिडिकायाम्' (tamarind ) शब्द बगाली, मैथिली एवं काश्मीरी वाचनाओं में प्रचलित है, दूसरी और देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं में 'तिन्त्रिणीफले' ऐसा पाठान्तर दिखाई पडता है। संभव है कि सूत्रधारों ने अपने प्रदेश का जो प्रचलित शब्द होगा वही परिवर्तित करके रखा होगा । (ख) दूसरा जो शब्द है वह 'स्त्रीरत्नपरिभोगिनः ' है, वह उपमानभूत 'पिण्डखर्जूर के भोक्ता' के साथ अन्वय रखता है । लेकिन देवनागरी एव दाक्षिणात्य वाचनाओं में 'स्त्रीरत्नपरिभाविनो' ऐसा पाठ मिलता है; जिसका 'उद्वेजितस्य' शब्द के साथ बध जोड़ना है । अब यहाँ पर विदूषक की जो मजाक उड़ाने की आदत है उसको देखते हुए
वह 'स्त्रीरत्नपरिभाविनः' वाला (दूसरा पाठान्तरवाला) शब्दप्रयोग ही करेगा ऐसा प्रतीत होता है । और वही पाठ अधिक क्षेत्रों में प्रचलित लगता है । अथवा जिन सूत्रधारों ने 'स्त्रीरत्नपरिभोगिनः'
काट्यवेम
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शंकर, १९९
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