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________________ VoI XXII, 1998 'रसगगाधर' के काव्यलक्षण 135 भिन्न स्वीकार करें तो एक ही रचना में दो काव्य प्रवृत्त होंगे ।" जगन्नाथ की यह दलील तर्क पूर्ण अवश्य है, फिर भी इसे हम स्वीकार नहीं सकते, क्यों कि, शब्द और अर्थ के 'सम्यक योग' से ही साहित्य निष्पन्न होता है अतः काव्य में प्रवृत्त होते शब्दार्थयुगल में से किसी एक का दूसरे से अलग होना संभव नहीं। अत: काव्य तो एक अविभाज्य इकाईरूप ही है। कालिदास ने 'रघुवश' में, 'वागर्थाविव सम्पृक्तौ जगतः पितरौ' की स्तुति द्वारा इसी बात को पुरस्कृत किया है । आनन्दवर्धन ने भी 'शब्दार्थों तावत् काव्यम्' ऐसा कहकर, इस विषय में किसीको कोई आपत्ति नहीं है यह सूचित किया है । 'तावत्' द्वारा सर्वसम्मति का सूचन होता है इसे 'लोचन' कार ने नोट किया है । इस तरह जगन्नाथ ने 'शब्दार्थों के प्रति जो आक्षेप किये हैं, वह स्वीकार्य नहीं हो सकते। उन्होंने 'अदोषौ' और 'सगणौ' की जो टीका की है, उसमें विश्वनाथ का प्रभाव स्पष्ट है । यहाँ यह कहना होगा कि विश्वनाथ ने मम्मट का जो खंडन किया है वह रस को आत्मा मानकर तथा शब्दार्थ को शरीर मानकर किया गया है, लेकिन विश्वनाथ और जगन्नाथ भी यह भूल जाते हैं कि, शरीर, आत्मा-जैसा प्रयोग रूपकात्मक ही हो सकता है। विश्वनाथ खुद भी समझते ही हैं कि गुण रस के धर्म होते हुए भी उनकी साक्षात् अभिव्यक्ति तो शब्दार्थ के माध्यम से ही होती है, अत: प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गुणों का सम्बन्ध शब्दार्थ से है ही । यह बात आनन्दवर्धन में भी प्राप्त होती ही है। आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्यात्मा के रूप में जो वर्णित किया है वह तो परम्परा के अनुसार ही समाम्नातपूर्व:-यह स्पष्ट है। वास्तव में शरीर, आत्मा इत्यादि प्रयोग तो केवल अर्थवाद है। दण्डी, वामन जैसे आचार्यों ने इस रूपकात्मक शैली का प्रयोग किया है, जिसे परवर्ती आचार्यों ने भी अपनाया है। किन्तु भामह कि जो शुद्धरूप से तार्किक थे, उन्होंने स्पष्टरूप से 'शब्दाौँ ' को ही काव्य कहा है तथा उसीका स्वीकार मम्मट, हेमचन्द आदिने किया है, जो समुचित लगता है । अत: काव्यलक्षण के विषय में जो 'शब्दः काव्यम्' की परिपाटी का स्वीकार हुआ है वह तार्किकरूप से समीचीन नहीं ठहरता, जब कि 'शब्दार्थों काव्यम' की, भामह द्वारा पुरस्कत, आनन्दवर्धन आदिको अभिप्रेत तथा मम्मयादि के द्वारा समर्थित परम्परा ही सर्वस्वीकार्य है। पादटीप ★अखिल भारतीय प्राच्यविद्या समेलन -३९-१९९८ में प्रस्तुत किया हुआ शोधपत्र । १ रसगगाधर (र. ग.) १ १ २ तत्र कीर्ति-परमालाद-गुरुराजदेवताप्रसादाद्यनेकप्रयोजनकस्य काव्यस्य व्युत्पत्ते. कविसहदययोरावश्यकतया गुणालङ्कारादिभिर्निरूपणीये तस्मिन् विशेष्यताऽवच्छेदक तदितरभेदबुद्धौ साधनं च तल्लक्षण तावनिरूप्यते । र. गं. १० वृत्ति, पृ.८ ३ रमणीयता च लोकोत्तराहलादजनकज्ञानगोचरता । र. गं. १-१ पर वृत्ति, पृ. १०
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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