SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 134 जागृति पण्ड्या SAMBODHI अगर अर्थ है तभी उसे पाने या न पानेकी बात सोच सकते हैं । अतः लोकव्यवहार को जगन्नाथ ने प्रमाणरूप माना है वह गलत है । __ दूसरा यह कि, जगन्नाथ ने रमणीयार्थ का प्रतिपादन करते हुए शब्द को काव्य कहा है तो सगीत के शुद्धस्वर या आलाप में सुनाई देनेवाली ध्वनि को भी, उसकी रस-व्यंजकता के कारण काव्य कहना होगा । भिन्न-भिन्न रागों के आलाप में से कोई न कोई भाव की अनभति होती ही है यह तो प्रसिद्ध बात है । इस तरह जगन्नाथ के काव्यलक्षण में अतिव्याप्ति दोष आ गया है। इस विषय में अगर यह कहा जाय कि. संगीत के स्वरों में वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ तो होता नहीं है अतः उस शब्द को काव्य कैसे कहेंगे? तो उत्तर यह है कि, इस तर्क का स्वीकार करने से तो यह सुतराम् सिद्ध होता है कि काव्य में प्रतिपादित शब्द में वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ अतर्निहित होते ही हैं और काव्य की व्यंजना इस अभिधा या लक्षणा का अवलम्बन करके ही प्रवृत्त होती है, जब की, सगीत की व्यजना केवल ध्वनि के स्वरूप से आवाज के द्वारा ही साकार होती है। इस तरह काव्य का शब्द अर्थयुक्त-अर्थसहित-सार्थ हो, यह सिद्ध होने से, केवल शब्द को नहीं किन्तु शब्द और अर्थ दोनों को ही काव्य कहना समुचित होगा और तर्कशुद्ध भी । जगन्नाथ ने खुद भी रमणीय अर्थ द्वारा, वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ से युक्त ऐसा अर्थ लिया है । अतः जगन्नाथ के काव्यलक्षण में अतिव्याप्ति दोष और व्यवहारविरोध दोनों प्रतीत होते हैं। उस की अपेक्षा मम्मट का काव्यलक्षण सविशेष ग्राह्य लगता है, जिसमें भामह-आनन्दवर्धन आदि का अनुसरण है और जिसे हेमचन्द्र भी पुरस्कृत करते हैं । प्राचीनों के काव्यलक्षण का खंडन प्रस्तुत करते हुए जगन्नाथ ने जो उद्धरण दिया है, वह'अदोषौ सगुणौ सालङ्कारौ शब्दार्थों काव्यम्' मम्मट के काव्यलक्षण" से भिन्न है और हेमचन्द्र के काव्यलक्षण- से काफी हद तक मिलताजुलता है (उसमें से केवल 'च'कार ही छूट गया है । अतः श्री आर. बी. आठवलेजी ने कहा है कि जो शब्द मम्मट के काव्यलक्षण में नहीं है, उन्हें उसमें थोपकर जगन्नाथ ने उनकी नाहक टीका की है। लेकिन हम कहेंगे कि हेमचन्द्र ने मम्मट के काव्यलक्षण में प्राप्त बातें ही अपने शब्दों में दोहराई है । हेमचन्द्र के काव्यलक्षण में प्राप्त 'सालङ्कारी च' शब्दों द्वारा मम्मट के 'अनलकृती पुनः क्वापि' का स्वीकार अभिप्रेत है ही । अत: यह मानना होगा कि जगन्नाथ ने जिस लक्षण का खडन किया है वह मम्मट के काव्यलक्षण का सारसक्षेपरूप है, या तो फिर 'प्राश्चः' के द्वारा मम्मट और हेमचन्द्र दोनों अभिप्रेत हो ऐसा भी हो सकता है । इसी वजहसे शायद जगन्नाथ ने ऐसे शब्द उद्धृत किये, जो दोनों को लागु होते हो । जो भी हो—पर प्राचीनों के इस प्रथम मत का खंडन करते समय जगन्नाथ का सर्वप्रथम निशान 'शब्दार्थों' पद बनता है। काव्य का प्रवृत्तिनिमित्त उस में निहित काव्यत्व है इस बात का स्वीकार करके जगन्नाथ कहते हैं कि यह काव्यत्व क्या है। 'एको न द्वौ'-एक वस्तु दो तो नहीं सकती, इस न्याय से काव्य भी शब्द और अर्थ दोनों रूप नहीं हो सकता । अगर दोनों को भिन्न
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy