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________________ 'रसगंगाधर' के काव्यलक्षण की समीक्षा* जागति पण्ड्या काव्यशास्त्रीय आलोचना में काव्य के स्वरूप के विषय में सर्वप्रथम विचार किया जाता है। भामह से लेकर जगन्नाथ तक सभी आचार्यों ने काव्य का स्वरूप दर्शाते हुए काव्यलक्षण देने का प्रयास किया है। उन सबका परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि भामह रुद्रट आदि आचार्यों ने शब्द और अर्थ दोनों को काव्य माना है जब कि दण्डी, वामन आदि आचार्यों ने केवल शल्द को । जगन्नाथ भी 'शब्दः काव्यम' का स्वीकार करते हैं। 'रसगगाधर' में दिया गया काव्यलक्षण इस प्रकार है-रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् ।। इस काव्यलक्षण को देने से पूर्व जगन्नाथ बताते हैं कि, कीर्ति, परम आहलाद जैसे कई प्रयोजनो की सिद्धि काव्य के द्वारा होती है अत• कवि और सहृदय दोनों के लिए काव्य का ज्ञान होना आवश्यक है। वैसे तो काव्य का ज्ञान उस में प्राप्त या निरूपित गुण, अलङ्कार आदि के द्वारा होता है फिर भी विशेष्यरूप काव्य विशेष्यता का प्रतिपादन करने के लिए तथा उनसे भिन्न अन्य बातों से काव्य को अलग दर्शाने के लिए काव्यलक्षण दिया जाता है। जगन्नाथ ने अपने काव्यलक्षण में रमणीय अर्थ प्रदान करनेवाले शब्द को काव्य कहा है । इस के द्वारा शब्द पर आधारित किन्तु रमणीय अर्थरहित रचनाओं से काव्य का पृथकत्व और साथ ही शब्द पर आधारित नहीं किन्तु रमणीय अर्थ देनेवाले कटाक्ष आदि से भी काव्य का पृथकत्व अभिप्रेत है। काव्यलक्षण देने में जगन्नाथ ने बडी सझ-बूझ का परिचय दिया है। उसमें उल्लिखित हरेक पद स्वारस्यपूर्ण है। जगन्नाथ ने शब्द को ही काव्य माना है, पर यह शब्द रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करता हो यह जरूरी है। यहाँ लक्षण में 'रमणीय' पद के होने से सामान्य अर्थवाची शब्द-जैसे कि, 'घटमानय', काव्य के प्रान्त में नहीं आ सकते । 'अर्थ' पद के होने से व्याकरणशास्त्र, कि जिससे रमणीय शब्द की सिद्धि होती है, उसका समावेश काव्य में नहीं हो सकता । तथा च, रमणीय अर्थ की अभिव्यक्ति करते हुए कटाक्षादि भी शब्दरूप नहीं होने से काव्य के क्षेत्र से बाहर रहते हैं । एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि, यहाँ 'अर्थ का प्रतिपादक' ऐसा प्रयोग किया है, इस से केवल वाच्यार्थ ही नहीं, अपि तु लक्ष्यार्थ, व्यङ्ग्यार्थ आदि हर कोई अर्थ को देनेवाला शब्द काव्य माना गया है । जगन्नाथ के काव्यलक्षण में रखी गई रमणीयता की शर्त इतनी बुलंद ही कि सामान्य शब्द और शास्त्र में निबद्ध शब्द से काव्य का प्रान्त सुरक्षित रहता है। इस रमणीयता के द्वारा जगन्नाथ का अभिप्रेत काव्य के लोकोत्तर आहलाद का अनुभव कराने की योग्यता है। यह लोकोत्तरता या अलौकिकता जो कि चमत्कार का ही दूसरा नाम है, वह आनन्द का एक ऐसा विशिष्ट
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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