SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 128 गोविन्दलाल शं शाह SAMBODHI जेन मदिरो पर ध्वज आरोपण, शेत्रुजय, गिरनार के जैन मदिरों की यात्रा, २४ तीर्थंकरों की मतवाले अष्टापद दहेरासर बॅधवाना, ऋषभदेव का दहेरासर बधवाना, जिस में अन्न, वस्त्र, पुस्तकों के साथ पढने का इतेजाम होता है ऐसी पौषधशाला का निर्माण करवाना, परमदेव का शिष्य श्रीषेण को आचार्यपदवी का उत्सव, आनेवाले तील साल में दुर्भिक्ष होनेवाला है ऐसा जाननेवाली परमदेव की ज्योतिष विद्या या यौगिक विद्या, श्रीषेणसूरि का योगी के साथ सर्पविद्या के बारे में विवाद, नागदश का विषप्रसार थामना, राज और पद्म की गुरूपदेश तथा धर्मकार्य में श्रद्धा इस महाकाव्य का जैन वातावरण पर-परिवेश पर-प्रकाश डालते हैं । पात्रालेखन .- कवि सर्वानन्द ने नायक जगडू का चरित्रचित्रण विस्तार से किया है। यह ऐतिहासिक महाकाव्य होने के कारण इसमें अतिशयोक्ति होना सभव है । जगडू के धर्मनिष्ठ पूर्वज, भाग्यवशात् मणिप्राप्ति से वृद्धि, समुद्रदेव के वरदान से लक्ष्मी की वृद्धि, भद्रदेव की कृपा से पत्थर मे छिपे हुए रत्नों की प्राप्ति, अन्य देश के राजाओं के यहाँ भी जगडू सेठ का आदरणीय स्थान, गुजरात की महाजन परपरा का प्रतिनिधि जगडू ने युक्ति से किया हुआ पीठदेव का पराभव, जैन आचार्यों और धर्म प्रति सपूर्ण श्रद्धा, सघयात्रा तथा दहेरासर आदि के निर्माण के लिये द्रव्य का दान, दुष्काल में अनेक देशों के राजाओं को तथा जनता को अन्नदान में व्यक्त दानवीर जगडू की करुणा इत्यादि गुणों को प्रकाशित करने में कवि सफल रहे हैं । इस महाकाव्य में जेतसी, तुर्क का अनुचर काराणी, पीठदेव, परम-देवसूरि, योगी, लवणप्रसाद, हमीर, विशलदेव वाघेला श्रीषेणसूरि, मंत्री जागड, जगडू की पत्नी यशोमती, पुत्री प्रीतिमती, राजलदेवी आदि गौण पात्र हैं । भाषा-शैली-व्याकरण :- 'श्रीजगडूचरित' की संस्कृत भाषा महदंश सरल है । वर्णात्मक श्लोकों में भाषा समासयुक्त है । कथनात्मक श्लोकों में पुराणों जैसी भाषा है। काव्य में यथावसर वैदर्भी तथा गौडी शैली पायी जाती है । सर्वानन्द की भाषा व्याकरण शुद्ध है । दलयोंबभुण (I20), शुशुभिरे (1-29), व्यधायि (1-41), चरयों बभुव (II-8), रचयोंञ्चकार (II-9), कलयाँ बभूवुः (II-12), ठोकयित्वा (III-46), कारयामासिवान् (VI-72), जैसे रूप मिलते हैं । छन्द :- अलंकार .- सर्वानन्द विविध समवृत्तों में काव्यरचना करने में निपुण है । प्रथम दो सर्ग का हि छन्दोवैविध्य देखा जाय तो प्रथम सर्ग में १ से ३१ श्लोक वसततिलका में, ३२ मालिनी में, ३३-३४ उपजाति में, ३५ दोधक में, ३६-३७ शार्दूल-विक्रीडित में, ३४-४५, वंशस्थ में, ४४ द्रुतविलबित में हैं । द्वितीय सर्ग में १ से १६ श्लोक उपजाति में, १७ शार्दूलविक्रीडित में, २४२५ रथोद्धता में, श्लोक २६ स्वागता में है। अमुक श्लोकों में क्लेशदायक यति है । उदा. (i) भिक्षाकृते श्रीजगडूनिवासाङ्गणेऽऽगमत्तद् गुणहृष्टचित्तः । यहाँ 'सा' के पास पादसमाप्ति है और 'ग' से८ नया पाद शुरू होता है जो दोषपूर्ण हैं ।
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy