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Vol XXII, 1998
सर्वानन्दसूरिकृत श्रीजगडूचरित.
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इस महाकाव्य का प्रधान रस दयावीर प्रकार का वीररस है। शृगार तथा शान्तरस गौण हैं । चमत्कारिक प्रसग निरूपण में अद्भुत रस है । जगडू के जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा समग्र काव्य में वर्णित होने के कारण मुख्य, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श, निर्वहण नामक नाटकसन्धि हैं। प्रत्येक सर्ग एक वृत्त में और अन्त में वृत्तपरिवर्तन हुआ है, कहीं बीच में भी भिन्नवृत्त पाया जाता है ।
तुर्क का सेवक काराणी, पारकर का पीठदेव, कथकोट का योगी आदि दुर्जनों की निन्दा की गई है । परमदेव, श्रीषेणसूरि आदि सज्जनों की प्रशसा है।
भद्रेश्वरनगरी का वर्णन, समुद्र की आराधना प्रसग पर रात्रि एव प्रभात का वर्णन, दुष्काल के बाद मेघवर्षा होनेपर प्रकृति का वर्णन है। निशान्त और सूर्योदय का कवि ने सदर प्रकृति वर्णन इस श्लोक में किया है । उदा.
प्रस्वेदबिन्दुनिभनिर्गलदच्छतारा विश्वस्तमेचकतमो वसना निकामम् ।
कोकाम्बुजन्मनिवहे विहितापराधा शीघ्रं ययौ रविभियेव निशा पिशाची ॥ लोकरञ्जक बननेकी क्षमता, काव्यानन्द देने की क्षमता इस महाकाव्य के पास है। उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, अर्थान्तरन्यास, अपहनुति आदि अलंकार इस काव्य में पाये जाते हैं। नायक के नाम से महाकाव्य का शीर्षक रखा गया है । सर्ग की कथा अनुसार सर्ग के नाम दिये गये हैं । इस महाकाव्य चतुर्वर्ग फल से युक्त है। नायक जगडू का जीवन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्वर्ग पुरुषार्थ का दृष्यन्त है। काव्य में जैनधर्म का वातावरण है। किसी एक लक्षण की कमी होने पर भी 'श्रीजगडूचरित' सरल शैली में लिखा हुआ महाकाव्य है।
जैन धर्म का वातावरण :- इस महाकाव्य में जैन परिवार की कथा है। जगडू सेठ के पूर्वज वीयहु, वरणाग, वास, श्रीवीसल, वीरदेव, नेमि, चांदू, श्रीवत्स, लक्ष, सुलक्षण, सोल, सोही धर्मपरायण जैन थे । शेत्रुजय और गिरनार की यात्राएँ, ऋषभदेव की सेवा, परोपकार और व्यापार के साथ इनका सम्बन्ध रहा था । जगडू के पिताजी सोल सात तत्त्वों को जाननेवाले, सात पवित्र क्षेत्रों में द्रव्य का व्यय करनेवाले, सात नर्क के भय से रहित थे ।२६ परमदेव नामक जैन गुरु का आचाम्लवर्धमान व्रत का निर्देश है । इस को आम्बील व्रत भी कहा जाता है । इस व्रत में तेल. घत. दग्ध. दधि रहित. रसवर्जित भोजन लिया जाता है । माष(उड़द) को पानी में भीगोये रखकर इसका भोजन किया जाता है । परमदेव आचार्य ने सघ में विघ्न करनेवाले सात यक्षों को शखेश्वर पार्श्वनाथ में उपदेश दिया तथा दुर्जनशल्य राजा का कुष्ठरोग मिटाया था । आचार्य परमदेव, इर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, आलोकित पानभोजन-ये पाँच समीति तथा मन, वचन, काय ये तीन गुप्ति का आश्रयभूत होनेवाले, १७ प्रकार को संयम का पालन करनेवाले, सर्व भव्य पुरुषों को उपदेश देनेवाले थे। परमदेव के कारण जगडू को धर्म में प्रीति हुई । परमदेव जीव,, अजीव, आश्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष-ये सप्ततत्त्वी विद्या का प्रकाश करने वाले थे । जगडू ने संघयात्रा की । परमदेव ने संघयात्रा में जगडू का संघ के अधिपति के रूप में तिलक किया ।