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________________ 122 गोविन्दलाल शं शाह SAMBODI 'श्रीजगडूचरित' पर एक लेख में कृष्णलाल मो. झवेरी ने लिखा है कि लोककी रहनसहन, दे की स्थिति, एव नायक का वृत्तांत का वर्णन, वाचक को इस समयका यथार्थ दर्शन करवाता है कंथकोट, भद्रेश्वर आदि नगरों के वर्णन के आधार पर वे स्थायी विभूति से उस समय कित समृद्धिवान थे यह स्पष्ट होता हैं । 'श्रीजगडूचरित' का कथानक संक्षेप में इस प्रकार है । सर्ग १:- सर्ग का नाम 'वीयदुपभृति-पूर्वपुरुष-व्यावर्णन' है। इसमें ४५ श्लोक हैं। " श्रेयसे भवतु पार्श्वजिनाधिनाथः" इन शब्दों से यह महाकाव्य का आरम्भ आशीर्वाद से होता है। प्रथ सात श्लोकों में पार्श्वनाथ, सरस्वती, गुरु धन प्रभसूरि तथा ऋषभदेव को नमस्कार किये गये हैं अ सत्पुरुषों के बारे में कहा गया है । कथावस्तु का आरम्भ करते समय ही कवि ने अपनी काव्यप्रति' का परिचय इस श्लोक में दिया है। "लक्ष्मीस्तरङ्गतरलापवनप्रकम्पश्रीवृक्षपत्रनिभमायुरिहाङ्गभाजाम् । तारुण्यमेव नवशारदसांध्यरागप्राय स्थिरा सुकृतजा किल कीतिरेषा ॥ श्लोक २४ तक अपने चरित्र नायक जगडू के गुणों की प्रशंसा चलती है । श्लोक २ से जगडू के पूर्वजों का वर्णन है । "श्रीमालवंश इह मेरुरिवोन्नतोऽस्ति ..." । इस वश में वीया वरणाग, वास नामक पुत्रपरंपरा चली । वास के पाँच पुत्र श्री वीसल आदि थे। श्री वीसल । चार पुत्र थे जिन में से एक सोल नामक पुत्र था । कवि सर्वानन्द ने पूर्वजों के सदगणों का वर्ण किया है। अन्त में पुष्पिका में 'श्रीजगडूचरित' को महाकाव्य कहा है । सर्ग २ :- सर्ग का नाम 'भद्रेश्वरपुर-व्यावर्णन' है । इसमें २४ श्लोक हैं । श्लोक १ २४ तक भद्रेश्वर नगरी का सुन्दर वर्णन है । उदा. महापुरन्धीकरदर्पणाभं महेम्यलोकः परिभासमानम् । अस्तीह भद्रेश्वरनामधेयं पुरं वरं कच्छकृतैकशोभम् ॥ (४) इस नगरी की रक्षा के लिये शेषनाग, देवमन्दिरों मे घण्यनाद, समुद्रतट, वणिकों की हा में सुवर्ण और रत्न के ढेर, नगरी के शौकीन तरुणों, मृगनयनी स्त्रीओं के मधुरगान आदि का वर्ण है । नगरी भोगवती, अमरावती, अलका से उत्कृष्ट थी । अगुरुचन्दन के धूप, मधुरभृदङ्ग, क्रीडाशुव की मानिनी को मान छोडकर भोग करने की सलाह आदि का भी वर्णन है। यहाँ कुछ शृंगारिए श्लोक भी है । उदा. "प्रासाद पर बैठे कबूतरों के पास से नववधूओं अपने रतिसमय के सुन्र हुंकार सीखती थी" । जब पतिने कटिवस्त्र को हाथ से खींच लिया है तबभी सच्चे पद्मरागर्मा जडित गृह की कान्ति से शरीर आच्छादित होने के कारण कमलाक्षी लज्जित नहीं होती थी। इस नगर में मनुष्यों पुण्यबुद्धिवाले थे, देव और गुरु मत्सररहित दिखाई देते थे । वहाँ र मनुष्य पर्वत की तरह उन्नत एवं स्थिरता से शोभित थे ।११
SR No.520772
Book TitleSambodhi 1998 Vol 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1998
Total Pages279
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size8 MB
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