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मनोविज्ञान की भाषा में जगत् की विचित्रता का कारण है कर्म !*
रत्नलाल जैन 'कर्म भारतीय दर्शन का एक प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। उस पर लगभग सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनों ने विमर्श प्रस्तुत किया है। पूरी तटस्थता के साथ कहा जा सकता है कि इस विषय का सर्वाधिक विकास जैनदर्शन में हुआ है ।" -युवाचार्य महाप्रज्ञ
महापुराण में कर्म रूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्दों के बारे में लिखा है -
'विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुरा-कृतम् और ईश्वर - ये कर्म रूपी ब्रह्मा के वाचक शब्द है। इस प्रकार कर्म को ब्रह्मा के रूप में ही मान लिया गया ।
नीतिशतक में लिखा है - कि कर्म तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी अनेक प्रकार से नाच नचवाता है -
'जो कर्म ब्रह्माजी को कुम्हार के समान ब्रह्माण्ड रूपी भांड में स्थापित करता है । जो भगवान विष्णु को दस अवतारों के महान् और बड़े भारी संकट में डाल देता है और जो महादेव के हाथ में कपाल - फूटे हुए घड़े का आधा भाग, देकर उनसे भिक्षा के लिए भ्रमण कराता है, तथा जिसके प्रभाव से सूर्य निरन्तर आकाश में भ्रमण करता है, उस कर्म को नमस्कार हो।'
जैनाचार्य देवेन्द्रसूरि ने कर्म की विचित्रता-विविधता का इस प्रकार उद्घाटन किया है -
'राजा-रंक, सुन्दर-कुरूप, धनवान्-धनहीन, बलवान्-निर्बल, स्वस्थ-रोगी, भाग्यशाली-अभागा-इन सब में मनुष्यत्व समान होने पर भी जो अन्तर - जो भेद दिखाई देता है, वह सब कर्मकृत है । और वह कर्म जीव के बिना नहीं हो सकता । कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ?'
गौतम स्वामी ने पूछा -
'हे भगवन् ! क्या जीव के सुख-दुःख तथा विभिन्न प्रकार की अवस्थाएँ कर्म की विभिन्नता - विचित्रता या विविधता पर निर्भर है, अकर्म पर तो नहीं?
भगवान् महावीर ने कहा -
'गौतम ! संसार के जीवों के कर्मबीज भिन्न भिन्न होने के कारण उनकी अवस्था या स्थिति में भेद है, अन्तर है । यह अकर्म के कारण नहीं है।'
'कर्म रूपी बीज के कारण ही संसारी जीवों में अनेक उपाधियाँ, विभिन्न अवस्थाएँ दिखाई देती
आत्मा को मणि की उपमा देते हुए यह सत्य प्रकट किया गया है -
"जिस प्रकार मन से आवृत मणि की अभिव्यक्ति विभिन्न रूपों में होती है, उसी प्रकार कर्म रूपी मल से आवृत आत्मा की विविध-विभिन्न अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती है। .