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________________ 94 भारती सत्यपाल भगत SAMBODHI चार शींग का अर्थ है - भाषा के चार पद, अर्थात् नाम, आख्यात्, उपसर्ग और निपात। “त्रिपाद" शब्द को पतंजलि कालपरक स्वीकार करके यहां त्रिपाद से भूतकाल, भविष्यकाल, और वर्तमानकाल का अर्थ बताते है। वृषभ के दो शींग है। अर्थात् भाषा दो प्रकार की है। एक है नित्यभाषा अर्थात् वेद। क्योंकि वेद की भाषा नित्य मानी गई है। और दूसरी है कार्यभाषा अर्थात् लौकिक - जो वाग्व्यवहार की भाषा है। "सप्तहस्तासः" पद को पतंजलि ने सात विभक्तिपरक अर्थ लेकर समझाया है। वृषभ “त्रिधा बद्ध है" इस सन्दर्भ में पतंजलि बताते है कि शब्दोच्चारण तीन ढंग से होता है : हृदय, कण्ठ और मुख। शब्द तीन स्थानों मे बद्ध है। और शब्द से व्यवहार चलता है। क्योंकि वह अर्थ की वृष्टि करता है। अर्थात् वाणी से अर्थ की वृष्टि द्वारा लोकव्यवहार चलता है। पतंजलि का यह शब्दपरक अर्थघटन अन्य भाष्यकारों के यज्ञपरक अर्थघटन से अत्यंत भिन्न होते हुए भी तार्किक है और स्वीकार्य है उसमें कोई संदेह नहीं। पूर्वमीमांसा-सूत्र के भाष्यकार शबरस्वामी ने भी ऋग्वेद के इस मन्त्र का अर्थघटन दिया है। अभिधानेऽर्थवादः। १/२/३७. सूत्रान्तगत भाष्य में वह बताते है कि गौणी कल्पना के प्रमाण के आधार पर चत्वारि शृङ्ग शब्द असद् के अभिधान में गौण शब्द है। क्योंकि उच्चारण से यह दृढ प्रमाण नहीं है। शबरस्वामी वृषभ के चार शींग को चार होता के अर्थ में स्वीकार करते है। यहां शबरस्वामी, यास्क, वेंकटमाधव और सायण जैसे यज्ञपरक अर्थघटन बतानेवाले भाष्यकारों से अलग अर्थघटन देते है। यज्ञ की चार दिशा में चार वेद के चार ब्राह्मण होते है। १. ऋग्वेद का ज्ञाता होता पूर्व दिशा में, २. सामवेद का गान करनेवाला उद्गाता पश्चिम दिशा में, ३. यज्ञदेवी के नाम लेना इत्यादि यज्ञ के विविध कार्य करनेवाला यजुर्वेद का ज्ञाता अध्वर्यु दक्षिण दिशा में, ४. बाकी के ब्राह्मणों और कायों का अध्यक्ष अथर्ववेद का ज्ञाता ब्रह्मा नामक ऋत्विज उत्तर दिशा में बैठता है। हम ऐसा मान सकते है कि यास्क ने चार शींग का अर्थ “चार वेद" किया है। वहीं अथवा यास्क के उत्तरकाल में, और शबरस्वामी के समयावधि में यज्ञक्रियाकाण्ड सुविकसित हो गया होगा। जिसके कारण शबरस्वामी “चत्वारि शृङ्गा का अर्थ, यास्क की अपेक्षा से अधिक विशद करते है। दो शीर्ष अर्थात् पत्नी और यजमान। सप्तहस्त शब्द से यहां सप्त छन्द अभिप्रेत है। त्रिधा बद्ध शब्द को शबरस्वामी ने तीन वेद से बन्धा हुआ कह कर ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद का समावेश किया है। अर्थ की कामना की वृष्टि करने से जिसको “वृषभ" कहा गया है, वह शब्द करनेवाला है ऐसा (=यज्ञ) मनुष्यलोक में प्रचलित हुआ। यज्ञ की समृद्धि के लिए जो साधन (होम द्रव्यादि) है उसे चेतनप्राणी के शरीर के अवयवो के साथ तुलना करके शबरस्वामी ने रूपक द्वारा इस वृषभ के वर्णन को स्पष्ट किया है। जिस तरह "नदी" की स्तुति करने के लिए रूपकात्मक दृष्टि से उसे कहा जाता है कि - चक्रवाकपक्षीरूपी स्तनवाली, हंसपक्षीरूपी दन्तावलीवाली, काशापुष्परूपी वस्त्रवाली और शेवालरूपी केशवाली नदी (बह रही) है। ___अब प्रश्न होगा कि अचेतन यज्ञ को हम सचेतन वृषभ का रूपक लेकर कैसे स्पष्ट कर सकते है? तो इस बात को विशद करने के लिए शबरस्वामी कहते है कि यज्ञ की समृद्धि के लिए अर्थात् यज्ञ का महिमा प्रस्थापित करने के लिए उस (यज्ञ) के साधनो (दर्भघास इत्यादि) में भी सचेतनतत्व को उपपन्न किया जाता
SR No.520769
Book TitleSambodhi 1994 Vol 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1994
Total Pages182
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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