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________________ Vol. XIX, 1994-1995. मंन्त्रार्थघटन में.... यज्ञ निष्पन्न किया जाता है। सायण ने यहां यास्क का नामोल्लेखपूर्वक उद्धरण दिया है कि चत्वारिशृङ्गेति वेद वा एत उक्ता: ।(निरुक्त १३/७) सायण ने सूर्यपक्ष में भी इस मन्त्र का व्याख्यान किया है। जैसे कि - इस आदित्य के चार शृंग है। जो चार दिशा के रूप में हमें देखना है। यहाँ शंग शब्द का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ “आश्रयण देनेवाला" है। अत: चार दिशाओं को सूर्य के चार शींग माने गये है। इस आदित्य के तीन पाद कौन है? तो सायण बतातें हैं कि वह तीन वेद है। पाद का काम गमन करना है। तो सूर्य भी “दिवस के पूर्वाध में ऋग्वेद के द्वारा धुलोक में गति करता है" - ऐसा कहकर तै.ब्रा. मैं कहा है कि - "तीन वेदो के द्वारा सूर्य (सभी स्थानों को) अशून्य करता है (अर्थात् सब को भर देता है।)" (तै. ब्रा. ३.१२.९.१) अर्थात् इस ब्राह्मणवचन से सायण यह सिद्ध करते है कि तीन वेदो के द्वारा सूर्य सर्वत्र गति करता है। अब इस सूर्य के दो शीर्ष कौन है? तो सायण बताते है कि दिवस एवं रात्रि सूर्य के दो शीर्ष है। और सूर्य की सात किरण वह सात रश्मियां है। अथवा षड्ऋतु और एक साधारण ऋतु मिलकर सूर्य के सात हाथ बनते है। यह सूर्यरूपी वृषभ क्षिति, अन्तरीक्ष एवं धुलोक जैसे तीन स्थानों में बद्ध है। अथवा ग्रीष्म, वर्षा और हेमन्त - इन तीन प्रमुख ऋतुओं से सूर्य बद्ध है। इस सूर्य को भी "वषभ" कहा जाता है और वह आवाज़ भी करता है ऐसा हम कह सकते है क्योंकि सूर्य भी वृष्टिक्रिया में निमित्त है। ऐसा सूर्य रूपी महान देव भी एक नियन्ता के रूप में मर्त्य सृष्टि में प्रविष्ट हुआ है। जैसे कि ऋग्वेद में अन्यत्र कहा है कि - सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। (ऋग्वेद संहिता १.११५.१) सायण ने प्रारंभ में हि कहा था कि इस मन्त्र का पञ्चविध व्याख्यान संभवित है; तो इस मन्त्र को अप(जल) इत्यादि के पक्ष में भी व्याख्यात कर सकते है। लेकिन सायण ने केवल अङ्गलीनिर्देश कर कर इस व्याख्यान को आगे नहीं बढ़ायां है। __परन्तु सायण ने इस मन्त्र का वैयाकरणों के द्वारा जो व्याख्यान किया गया है इसका संक्षेप में निर्देश जरूर किया है। जैसे कि - चत्वारिशृङ्गा इन पदो से व्याकरण के नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात इन चार पदो का ग्रहण हो सकता है। सायण अन्त में कहते है कि अन्य शास्त्रवाले लोग दूसरी तरह से भी इस मन्त्र का व्याख्यान कर सकते है। अत: इन सब अर्थघटनों को हम यहां देख सकते हैं। उपर्युक्त विभिन्न अर्थच्छायाओं को देखने से इतना स्पष्ट होता है कि इस मन्त्र को- १. यज्ञ या यज्ञात्मक अग्नि, २. सूर्य एवं ३. शब्दरूपी वृषभ के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। महाभाष्याकार पतंजलि प्रस्तुत मन्त्र का अर्थ इस तरह करते है। हम सब जानते है कि पतंजलि वैयाकरण . है। अत: उन्होनें जो अर्थघटन बताया है वह यज्ञपरक तो होगा ही नहीं। प्रस्तुत ऋचा का शाब्दिक अर्थघटन देते हुए वह व्याकरण की महत्ता को प्रस्थापित करते है। और यास्क तथा वेङ्कटमाधव के अर्थघटन से सर्वथा भिन्न अर्थघटन को प्रस्तुत करते है। पतंजलि “महादेव" अर्थात् "शब्द" का प्राधान्य बताते है। वृषभ के
SR No.520769
Book TitleSambodhi 1994 Vol 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1994
Total Pages182
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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