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भारती सत्यपाल भगत
SAMBODHI हाथ कैसे हो सकते है ? इसलिए यहाँ कोई लौकिक वृषभ की बात अप्रस्तुत है इतना स्पष्ट है। फिर आर्ष दृष्टा ऋषिने यहां किसकी बात कि है? यह गवेषणीय है।
यहाँ सर्व प्रथम यास्क का अर्थघटन देखते हैं। यास्क वृषभ को उपमान और यज्ञ को उपमेय के रूप में देखते हैं। अर्थात् इस मन्त्र का यज्ञपरक अर्थघटन देतें है। वृषभ के चार शीर्ष अर्थात् चार वेद। तीन सवन अर्थात् सोमरस निकालने के तीन समय (=प्रातः, मध्याह्न और संध्या) यहां अभिप्रेत है। वृषभ के दो शींग से यहाँ दो हवन प्रस्तुत है - प्रायणीय और उदनीय । सात हाथ से सात छन्दो में निरूपित वेदमन्त्र यहां अभिप्रेत है। वृषभ तीन बाजु से बन्धा हुआ है इसका मतलब है कि यज्ञ मन्त्र, कल्प और ब्राह्मण में बद्ध है। वृषभ के आवाज को यास्क ने ऋक्, यजुस्, साम से बद्ध स्तुतिमान कहा है। “महादेव" शब्द को वृषभ के विशेषण के रूप में स्वीकार किया जाय तो यज्ञ के पक्ष में “शब्द' ही महादेव है ऐसा स्वीकार करना चाहिए । यही महादेवरूपी यज्ञ यजन कराने के लिए मनुष्य जाति में प्रचलित हुआ। इस तरह यास्क प्रस्तुत मन्त्र का यज्ञपरक अर्थघटन देते है। और "महादेवयज्ञ" के सन्दर्भ में उपर्युक्त मन्त्र का स्वीकार करते हैं।"
अब वेङ्कटमाधव प्रस्तुत मन्त्र का अर्थघटन किस रीति से बताते है यह देखिए। यास्क की तरह वेङ्कटमाधव भी यज्ञपरक अर्थ स्वीकार करते है। चार शींगवाला वृषभ अर्थात् चार वेद, तीन पाद अर्थात् तीन सवन। दो मस्तक अर्थात् ब्रह्मौदन और प्रवर्य। सात हाथ अर्थात् सात छन्द में निरूपित वेदमन्त्र। वेङ्कटमाधव त्रिधा बद्ध वृषभ का अर्थघटन यास्क की तरह "मन्त्र ब्राह्मण और कल्प से बद्ध यज्ञ" ऐसा देते है। वषभ आवाज़ करता है - इसको यज्ञपरक अर्थ में कैसे समझायेंगे? तो वेङ्कटमाधव ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद से उचरित यज्ञ की स्तुति-ऐसा अर्थघटन देते है। और यह स्तवन घोष से “पहादेवयज्ञ" मनुष्यों में प्रचलित हुआ।
सायणाचार्य ने इस मन्त्र के भाष्य में कहा है कि पांच प्रकार से इस मन्त्र की व्याख्या हो सकती है। क्योंकि यह मन्त्र जिस सुक्त में आया है उस सुक्त के अग्नि, सूर्य इत्यादि पांच देवताएँ है। परन्तु निरुक्त में जो प्रक्रिया बताई है उसके आधार पर इस मन्त्र को (१) यज्ञात्मक अग्नि, और (२) सूर्य के पक्ष में समजाया जाता है।
___ जैसे कि - यज्ञात्मक अग्नि के चार शींग होते है जो चार वेद के रूप में अवस्थित है। इस यज्ञात्मक अग्नि के तीन पाद है अर्थात् यज्ञक्रिया के तीन सवन को यहां तीन पाद कहे गये है। इन तीन सवन को प्रवृत्ति साधन मान कर रूपकात्मक दृष्टि से तीन पाद कहे है। इस यज्ञात्मक अग्नि के जो दो शीर्ष है वह एक ब्रह्मौदन और दूसरा प्रवर्य है। यहां “सात हाथ" यज्ञक्रिया में प्रयुक्त होनेवाले मन्त्रों के प्रमुख सात छन्द है। यज्ञानुष्ठान में हाथ ही मुख्य साधन होते है। और छन्द भी इसी तरह देवता को प्रसन्न करने के लिए मुख्य साधन मानकर "सप्तहस्त" के रूप में स्वीकारे गये है। यह यज्ञात्मक अग्नि तीन प्रकार से बांधा गया है। उसका अर्थ होता है कि यज्ञ को मन्त्र, ब्राह्मण एवं कल्प से बांधा गया है। इस मन्त्र में वृषभ का अर्थ होता है हल की वृष्टि करनेवाला तथा "रोरवीति" क्रियापद का अर्थ है बहुत आवाज़ करता है। जैसे कि ऋक, यजुस, साम एवं उक्थों से यागस्तुति के प्रसंग में होता इत्यादि के द्वारा किये जानेवाला ध्वनि। और ऐसा "महान देव" अर्थात् यज्ञात्मक अग्नि मर्त्य सृष्टि में प्रविष्ट हुआ है। यहाँ मर्त्य अर्थात् यजमानों के द्वारा