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________________ Vol. XIX, 1994-1995. मंन्त्रार्थघटन में.... 95 है। जैसे कि (यज्ञक्रिया) में उपयोगी ऐसी वनस्पति को काटकर ले आने के लिए उसे प्रथम आमन्त्रण = सम्बोधन किया जाता है। जैसे कि - "हे औषधि। तुम उसे बचाओ।" "हे ग्रावन् तुम सुनो।" इत्यादि शबरस्वामी के टीकाकार कुमारिल भट्ट प्रस्तुत विचारविमर्श का ओर चिंतन करते है। रूपक द्वारा यज्ञ की स्तुति यहां अभिप्रेत है। ऐसा शबर के चार शींग अर्थात् चार याम अर्थात् चार प्रहर ऐसा अर्थ कुमारिल ने दिया है। तीनपाद से तीन ऋतु - शिशिर, गीष्म, वर्षा वहाँ अभिप्रेत है। दो मस्तक शब्द को कुमारिल दो अयन (अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन) के अर्थ में स्वीकार करते है। यज्ञ को अश्व के रूप में मानकर उसके सात हाथ अर्थात् सात किरण का स्वीकार कुमारिल करते है। त्रिधा बद्ध शब्द को तीन सवन के अर्थ में बताते है। वृषभ के आवाज़ से यहाँ वाणी की वृष्टि अर्थात् वाग्व्यवहार अभिप्रेत है। और सर्व लोक में प्रसिद्ध ऐसा महादेव अर्थात महानदेव मर्त्यलोक में प्रविष्ट हआ। और उत्साह देकर उपकारक करके सर्व पुरुषों के हृदय में प्रविष्ठ हुआ। राजशेखर ने काव्यमीमांसा में काव्यपुरुष की उत्पत्ति की चर्चाविचारणा कि है। उन्होनें इस वेदमन्त्र को वहाँ उद्धृत किया है। काव्यपुरुष का वर्णन है - शब्द और अर्थ तेरे शरीर है। संस्कृत भाषा मुख है। प्राकृत भाषाएं तेरी भुजाएँ है। अपभ्रंश भाषा जंघा है। पिशाचभाषा चरण है और मिश्रभाषाएँ वक्षःस्थल है। तू सम, प्रसन्न, मधुर, उदार, और ओजस्वी है (काव्य के गुण) तेरी वाणी उत्कृष्ठ है। इस तेरी आत्मा है। छन्द तेरे रोम है। प्रश्नोत्तर, पहेली, समस्या आदि तेरे वाग्विनोद है। और अनुप्रास, उपमा आदि तुझे अलंकृत करते है। भावी अर्थो को बतानेवाली श्रुति (वेद) भी तेरी स्तुति करती है। इस वर्णन के समर्थन में राजशेखर ने यह चत्वारिशृङ्गा...... वेदमन्त्र उद्वत किया है।५२ उपसंहार : ___ इस तरह एक ही मन्त्र (ऋग्वेद संहिता ४/५८/३) का हमारी ही भारतीय परंपरा के भाष्यकारों ने विभिन्न दृष्टिकोण से अनेकविध अर्थघटन प्रस्तुत किया है। इस में जो ध्यानास्पद निष्कर्ष है वह इस प्रकार है: (क) वेदमन्त्रो के अर्थघटन एक से अधिक दृष्टिकोणों से हो सकता है। जैसे कि जो मन्त्र (चत्वारिशृङ्गा..) यास्क ने यज्ञपरक रूपक से समझाया है, वही मन्त्र पतञ्जलि ने व्याकरण शास्त्र के "शब्द" परक रूपक से विशद किया है। और राजशेखर जैसे साहित्यशास्त्री ने उसमें काव्यपुरुष का वर्णन देखा है। (ख) इस मन्त्र का, यास्क ने कोई नैरुक्तापरंपरा से सुसंगत हो ऐसा अर्थघटन नहीं दिया है। परन्तु याज्ञिक अर्थघटन ही दिया है। जो आगे चल कर अन्य वेङ्कटमाधवादि भाष्यकारों एवं पूर्वमीमांसा के प्रवर्तक आचार्यो के लिए मार्गदर्शक बना है। (ग) सायणाचार्य का अर्थघटन सूक्त के प्रधान देवता कौन है - यह देखकर प्रस्तुत किया गया है। उन्होने याज्ञिक अर्थघटन के साथ साथ शाब्दिक (वैयाकरणों के) द्वारा किये गये अर्थघटनों का सारांश भी दिया है। -
SR No.520769
Book TitleSambodhi 1994 Vol 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1994
Total Pages182
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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