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SAMBODHI
ज, ना, द्विवेदी मानवोऽयम् मनुजवंशोऽयम् अद्यजात: पूर्णतो भुवि दैन्यपाखण्डपुत्तलोऽयम् ।
+ अन्तरिक्षयुद्धे चासक्तः
अणुपरमाणु सङ्गरे ग्रस्त: ॥१३ इत्यादि।
इसी प्रकार कक्षा, पुस्तकालय आदि के बारे में भी बिना छन्द की कविताएँ लिखी गयी हैं- । जिस प्रकार कज्जली, नकटा, कँहरवा, गजलिका, कव्वाली, हजज, मदीद, कोश, दोहा, सवैया तथा हाइकू एवं अन्यगीतों के तर्ज के आधार पर प्रचुर संस्कृत-वाङ्मय की रचना हुई हैं, उसी प्रकार हिन्दी, उर्दू, फारसी
और राजस्थानी की अगणित कविताओं का संस्कृत में अनुवाद भी हुआ है। ऐसी मौलिक कृतियों के कृती प्रणेता पं० वासुदेव द्विवेदी, राजेन्द्र मिश्र और महराजदीन पाण्डेय तथा हास्यपूर्ण एवं व्यङ्गप्रधान चुटुकलों के धनी प्रशस्यमित्र के नाम भूल जाना एक साहित्यिक अन्याय होगा। प्रस्तुत हैं उदाहरण महराजदीनपाण्डेय के "मौनदेधः' काव्यसंग्रह से -
गजल : चिन्तया रोटिकाया एवं मनसि पदवीकृता,
अधरमधु न स्मृतौ विस्मृतमतिनयनयोरञ्जनम् ।
उपालभते को हि कं तस्मिन प्रयाते स्वर्गमिह, जीविते सत्येव सर्वं किमपि यदुपालम्भनम् ।
हिन्दमुस्लिमखुस्तसिखवसतावनेके श्वापदा:, अत्र मनुजा एव न त्वं गेषसे कं सज्जनम् ।
कव्वाली : कीदृशी कालिके, देवता त्वम् ?
दुर्बलं छागशावं त्वमिच्छसि
लोकविद्वेषकं नोपगच्छसि हिंसकं जीवजातं तु रक्षसि
कीदृशी कालिके, देवता त्वम् ।
क़ज्ज़ली: आयातो वनामली नायि!
वर्षति रसति धनाली काली ॥ आयातो.॥ मेघमेदुरे नभस्युत्पतितुं मामुत्कयतितमाम् आयातो वनमाली नायि!