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________________ Vol. XIX, 1994-1995 संस्कृत साहित्य में... करनेवाले विद्वानों में प्रो० अभिराज राजेन्द्र मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी, मुल्लपूडिजयसीताराम, बाबूराम अवस्थी, बच्चूलाल अवस्थी, बटुकनाथश्मस्त्री ख्रिस्ते, वीरभद्र मिश्र, रमाकान्त शुक्ल, पी० के० नारायणपिल्लै, बलभद्रप्रसाद शास्त्री, श्रीनिवासरथ, रामकरण शर्मा और ओमप्रकाश ठाकुर व ओगेटिपरीक्षित शर्मा के नाम प्रमुख हैं। विष्णुकान्त शुक्ल के प्रिन्सिपलकथा एवं पूर्णकुम्भः नामक ललितनिबंध संग्रहको तो भूला ही नहीं जा सकता । नये रचनाकारों संसार में प्रेमनारायण द्विवेदी, ६ उपन्यासों के प्रणेता केशवचन्द्रदाश और रीतिग्रन्थ के रचयिता रमाशंकर तिवारी सदा अविस्मरणीय बने रहेगें । 105 पहले की रचनाओं में नारी रचना के अन्तर्गत वर्ण्य विषय के रूप में अधिक, किन्तु रचनाकार के रूप में अल्पसंख्यक रही है, किन्तु नये परिवेश व नयी सामाजिक चेतना ने इधर संस्कृत-ग्रन्थों के रचनाकार के रूप में नारियों को खूब उभाड़ा है। ऐसी विदुषियों में पण्डिता क्षमाराव, वनमालाभवालकर, पुष्पा दीक्षित, नलिनी शुक्ला, नवलता विमला मुसलगांवकर, उमा देशपाण्डे, उर्मिला शर्मा, कृष्णा बन्धोपाध्याय, प्रेमलताशर्मा, भक्तिसुधा मुखोपाध्याय, कमला चुनेकर और मृदुला चुनेकर का नाम आदरपूर्वक लिया जाने लगा है। जहाँ काव्यादिके नायक और नायिका आभिजात्य सम्पन्न हुआ करते थे, वहाँ अब नये साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में यह स्थान मध्यम व मध्यमतर वर्ग के लोगों को दिया जाने लगा है। विज्ञान, उद्योग, यान्त्रिकी तथा अन्य भाषाओं के प्रभाव से प्रयोग धारा में आये नये शब्दों का उपयोग नूतन रीति से करना पड़ रहा है। जैसे लालटेन, पीकदान, निष्ठयूतादानभाजन', चकाचौंध, चिल्लीभूत", मुअज्जम, मायाजिहा ", रमज़ान, रामयान, हक, स्वत्व, मोटर, मार्तेलियानम्, अल्टिमेटम्, अन्तिमोत्तरम्' और बजट, अर्थसङ्कल्प: ' इत्यादि । नयी समस्याओं एवं उनके समाधान के सन्दर्भ में विद्वानों ने अपने तन-मन से भरपूर योगदान किया है। आज के प्रोफेसर, इंजीनियर, डॉकटर तथा समाज को अपना वर्ण्य बनाने में कवियों, निबंधकारो व उपन्यासकारों ने कहीं संकोच नहीं किया है। आचार्य रामकरन शर्मा की सन्ध्या, 'अभिराज' राजेन्द्र मिश्र के छलितधमर्णम्, इन्द्रजातम्, निगृहघट्टम् और वैधेयविक्रयम् तथा शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी का चर्चामहाकाव्य इन दृष्टियों से प्रतिनिधि ग्रन्थरत्न कहे जा सकते हैं। सुभाषितों और मुहावरों के प्राचुर्य से ऐसा भरापूरा साहित्य सम्भवतः अन्य किसी भाषा में प्राप्त होना कठिन है। मुहावरों की झाँकी दर्शनीय है अविहितवर्षणैव विलीना कादम्बिनी', प्रजापतिसरोऽप्येकं हंसं विहाय न वैभवे", प्रत्यवायबहुलोऽनुरागपन्थाः" तथा क्व नु भवति भवितव्यस्य द्वारम् इत्यादि२, । इसी प्रकार प्रमद्वरा के अतिरिक्त दूसरी नाटिकाओं व चतुष्पथीयम् आदि अन्य कृतियों से भी अगणित उदाहरण दिये जा सकते हैं। आधुनिक सन्दर्भों में रचनाशैलीगत नव्य प्रयोगों की दृष्टि से एक ओर जहाँ शारदागीति, संस्कृतगीति, व चायगीति जैसे छन्दों का प्रादुर्भाव 'प्राणाहुति:' आदिग्रन्थों के अन्तगर्त 'जाग्रत जाग्रतवीरा रे' प्रभृति कविताओं के माध्यम से हुआ है, वहीं अछन्दोमयी वाक्की सृष्टि भी हुई है। डॉ० शिवसागर जी की ही 'संम्भूति: ' नाम रचना से ' मानवोऽयम्' शीर्षक का काव्यांश उद्धृत है -
SR No.520769
Book TitleSambodhi 1994 Vol 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1994
Total Pages182
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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