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101 ज, ना. द्विवेदी
SAMBODHI समाजकल्याण के साथ साथ रमज़ानइद, मस्जिदे अदसा, नारीगीत, मानवराज्य, प्रहसन, बालसाहित्य, हिप्पीनत्य, डिस्को नृत्य और ब्रेक-अप आदि का भी सविस्तार समावेश किया गया है। किसी-किसी ने अणुबम की विभीषिका, नेता, कार्लमार्क्स, रक्तदान, दहेज, बेरोजगारी, खालिस्तान समस्या, गरीबो की स्थिति, खटमल, साबुन, प्याज, राशन, उग्रवाद, औद्योगिकता, शिक्षा के दोष, मन्त्री, रोटी, भ्रष्टाचार दुराचार मिथ्यावाद, विश्वासघात, दलविघटन, प्रवञ्चन, चाटुकारिता, नेता के लक्षण, चाय और काफी जैसे आधुनिक विषयों को भी अपनी कृति का विषय बनाया है। यथा - डॉ. शिवसागर त्रिपाठी की 'भज नेतारम्' कविता का शीर्षक यहाँ द्रष्टव्य
चित्तं भ्रष्टं वित्तं नष्टं दैवं जातं यदि वा कष्टम्। त्यक्त्वा सर्वं खर्वमखर्वं श्रम निर्वाचनरणजेतारम्॥ भज नेतारं०॥ पृष्ठे चित्रं राष्ट्रपितुर्वै स्वेष्टो देव: काचमधस्तात्। कृष्णे कर्मणि पुनरासक्तं यथातथा वैभवचेतारम् । भज०॥
महापुरुषों के व्यक्तित्व से सम्बद्ध बहुत रचनाएँ हुई है। जवाहरज्योति और इन्दिरागान्धिचरितम् की ही भाँति राजीव गांधी और लालबहादुर शास्त्री पर भी संस्कृत-कवीयों ने लेखनी चलायी है। बीसवीं तथा उन्नीसवीं शती के अनेक काव्यों में दादाभाई नौरोजी, मोतीलाल नहेरु, महामना मदनमोहन मालवीय, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एवं महादेव गोविन्द रानडे जैसे महापुरुषों को विषय बनाया गया है।
संस्कृत साहित्य में एक तरफ जहाँ वर्ण्य विषयों की दृष्टि से नये-नये विषयों को स्वीकारा गया, वहीं कला पक्ष (अप्रस्तुत विधान) में भी अनेक परिवर्तन हुए। विविध अछान्दस रचनाएँ हुईं, यात्रावृत्तान्त दैनन्दिनी रिपोर्ताज एवं पत्र-पत्रिकाओं के रूप में संस्कृत प्रयुक्त होने लगी। निबन्ध के अन्तर्गत निर्वचनात्मक, समीक्षात्मक, व्यष्टिप्रधान, (जिसे ललित निबन्ध भी कहते हैं) एवं अन्य अनेक प्रकार का विधाओं का जन्म हुआ, जिनके प्रचार-प्रसार में सारस्वती सुषमा, अजस्त्रा, सर्वगन्धा, व्रजगन्धा, सागरिका, स्वरमङ्गला, दूर्वा, गाण्डीवम्, चन्दामामा, प्रतिभा, अर्वाचीनसंस्कृतम्, संवित्, विश्वसंस्कृतम्, परमार्थसुधा, गैर्वाणी, उत्कलोदयः, भारतोदय: तथा संस्कृतप्रचारकम् आदि पत्र-पत्रिकाओं ने खूब सहयोग किया। अत्यन्त नये गेय छन्द लिखे गये, जैसे यहाँ ई०पी० पिषारटी द्वमा रचित एक कविता प्रस्तुत है
जनगणरमणी भारतधरणी जयति निरन्तरमङ्गलजननी। तव मन्द्रं जयवाद्यविशेषं प्रथयति जलनिधिरसद्रशघोषम्॥
जनगणरमणी........ कुसुमैरविरलपरिमलमिलितैस्तरुततिरर्चति नवमधुकलितैः । द्वीपद्वीपमर्यादसमानं यस्यासुमहितधर्मवितानम्॥"
जनगणरमणी.........। साहित्य की प्राय: हर विधा में आकाशवाणी, तार, दूरदर्शन, कान्फेरेन्स, टेपरिकार्ड, गहिणी की दक्षता आदि के वर्णन के समय नूतन मुहावरों, नयी संस्कृत शब्दावली, नयी सक्तियों और नये सुभाषितों का प्रयोग