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Vol. XIX, 1994-1995 संस्कृत साहित्य में...
103 १९३६ में जब छायावाद अपनी अन्तिम साँसे गिन रहा था, उस समय केरल के संस्कृत कवि ई०पी० पिषारटीने चार अंको के एकभारतम्' नामक नाटक की रचना की, जिसमें आत्माभिव्यञ्जना, प्रकृति का मानवीकरण, विश्वबन्धुत्व, मानवता, नूतन छन्द-विधान, प्रतीक लक्षण और व्यञ्जनाप्रयोग आदि सारी छायावादी विशेषताएँ विद्यमान हैं। संस्कृत के मूर्धाभिषिक्त मनीषियों में जहाँ छायावाद की गति पहचानी, वहीं राष्ट्रीयता का स्व भी बुलन्द किया। १८७७-१९१७ खी० में श्रीधरपाठक नामक कवि ने मनोविनोद, बालभूगोल, एकान्तवासीयोगी, गोखलेप्रशास्ति:, काश्मीरसुषमा, श्रीगोखलेगुणाष्टकम्, भक्तिविभा और आराध्यशोकाञ्जलि: की रचना की। स्वदेशपञ्जक नाम्नी कविता में भारत का वर्णन करते हुए पाठकजी लिखते हैं
स्वरूपबोधबोधितं मनीषियूथमोदितं ।
प्रबोधपुञ्जवर्षणं प्रगल्भपुण्यदर्शनम्। स्ववाणिवेशवाससं 'स्वराज'वासनावृतम्
स्वदेशिभावभावितं भजे स्वदेशभारतम् ॥
आगे चलकर भारत का भूगोल सुनिश्चित कर एक रेखाचित्र भी खींचते हैं। यथा -
हिमाद्रिमूर्धशेखरं पयोधिकूलमेखलं
महानुभावचेतसं महाप्रतापमेधसम्। दिनेशतेजमण्डितं विवेकवेदपाण्डितम्
अशेषदेशमण्डनं नमामि द्वेपखण्डनम्॥
भगवती अमरवाग् वल्लरी के सिञ्चन करनेवालों व गगनगामी बनाने के लिए अवलम्ब देनेवाले काव्यप्रतिभामण्डित सुकृती आराधकों ने १९५२ के आन्दोलन, १९४७ के देशविभाजन, देश की स्वतंत्रता, भारत-पाक युद्ध, शिमला समझौता, चीनी आक्रमण, बाद में चीन से दौत्यसम्बन्ध, पोकरण का परमाणु विस्फोट, सिक्किम का भारत में विलय, आर्यभट्ट नामक उपग्रह का निर्माण, बेंको का राष्ट्रीयकरण, रुस- भारत मैत्री, पंजाब राज्य निर्माण और नदी-जल-विवाद का प्रशमन आदि विषयों पर गम्भीर रचनाएँ कीं। ऐसे विद्वानों की कृतियों में प्रो० सत्यव्रतशास्त्री कृत 'इन्दिरागान्धिचरितम्' एक अविस्मरणीय महाकाव्य है
इसी क्रम में डॉ० श्रीधर - भास्कर - वर्णकर कृत स्वातन्त्र्यवीर शतकम्, वात्सल्य रसायनम् तथा विद्वद्धुरीण पद्मशास्त्री की रचनाओं को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। कविवर पद्मशास्त्री ने अत्यंत सामयिक विषयों को आधार बनाकर आधुनिक संस्कृत जगत् के प्रवाह को तेज बनाया है। सिनेमाशतकम् स्वराज्यम्, बंगलादेशविजय ना पद्यपञ्चतन्त्रम्, मदीया सोवियतयात्रा और लेनिनामृतम् के प्रणेता शास्त्रीजीने रचनाओं की दिशा को नूतन आयाम प्रदान किया है।
नूतन किन्तु सामान्य सर्वेक्षण के आधार पर कहा जा सकता है कि बीसवीं शताब्दी में रचित स्वतंत्र्योत्तर महाकाव्यों की संख्या लगभग १५०, नाटकों की संख्या लगभग ८०, कथा:साहित्य २०, हास्य-व्यङ्ग्य रचनाएँ २५, चित्रकाव्य २०, दूतकाव्य ५५और अर्वाचीन संस्कृत पूर्वोक्त विषयों के अतिरिक्त सर्वधर्मसमभाव, कुटुम्बकल्याण,