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ज. ना. द्विवेदी
SAMBODHI से अधिक रचनाएँ हुई हैं। इनका संविभाग, संख्यात्मक आँकड़ा, इनके मूल उत्स आदि का अध्ययन तो इतिहास व अनुसन्धान का विषय है; किन्तु उन कृतियों के वैशिष्टय की दृष्टि से उन्हें पूर्वस्वातन्त्र्य एवं स्वातन्त्र्योत्तर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।
विदेशियों द्वारा हान्सोन्मुखीकृत संस्कृत रचना परम्परा प्रयोग का अभ्युदय यदि १८५८ ई. के अन्तर्गत जयपुर में जन्मे विद्दद्धरीण पं० अम्बिकादत्त व्यास से माना जाय, तो अत्युक्ति नहीं होगी। इन्होंने 'शिवराजविजय' नामक ऐतिहासिक उपन्यास के द्वारा नूतन उपन्यास रचनाविधान की परम्परा में अभूतपूर्व प्रयोगात्मक योगदान किया। साथ ही गद्यकाव्यों की समीक्षा के लिए वह नूतन आधार भी दिया, जिसे 'गद्यकाव्यमीमांसा' कहते हैं। कथा, संवाद, चरित्र चित्रण, देशकाल, रचनाशैली और उद्देश्य, आधुनिक उपन्यासविधा के जो छ: तत्त्व हैं। ये सभी 'शिवराजविजय' में पूर्णत: प्राप्त होते हैं। उनके तथा तत्समकालीन सभी रचनाओं के ग्रन्थों में कहीं हिन्दुओं पर होनेवाले अत्याचारों का वर्णन है, तो कहीं स्वतन्त्रता से जूझने वाले राष्ट्रभक्त महापुरुषों की स्तुतियाँ हैं, कहीं जाति, धर्म और गौरव सम्बन्धी सन्देशों को जनजन तक पहुँचाने का उपक्रम है, तो कहीं विदेशी शासकों की प्रशंसा में हुए लेखन की भी कमी नहीं परिलक्षित होती।
इसी शृङ्खला में आगे चलकर विद्वान् उपन्यासकारों ने लगभग ९० से अधिक उपन्यासों की रचना की तथा ४५ से अधिक अन्य भाषाओं से संस्कृत में अनुवाद किया। इन सभी को पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, प्रेमप्रधान व अनूदित कुल ५ भागों में बाँटा जा सकता है। इन उपन्यासों में महामहोपाध्याय शंकरलाल नागर द्वारा प्रणीत 'महेश्वरप्राणप्रिया', भगवतीभाग्योदय:, अनसूयाभ्युद्यम्, चन्द्रप्रभाचरितम्, भट्टमथुरानाथ शास्त्री कृत 'आदर्शरमणी', रमानाथ शास्त्रीय कृत 'दु:खिनीबाला', बलभद्र शर्मा रचित 'वियोगिनी बाला', कुप्पूस्वामी विरचित सुलोचना' वररुचि, और चन्द्रगुप्त, का प्रमुख स्थान है। इसी प्रकार चिन्तामणीमाधव गोलेका ‘मदनलतिका', नरसिंहाचार्य पुणेकर का 'सौदामिनी', राजगोपाल चक्रवर्ती कृत 'कुमुदिनी' और विलासकुमारी तथा जग्गूबकुलभूषण का 'जयन्तिका' उपन्यास भी प्रेमपूर्णवर्णनों से पूरित हैं।
आधुनिक संस्कृत साहित्य में शरू से अधिक ऐसें शतक काव्य हैं, जिन में राष्ट्रियता को मुख्य आधार बनाया गया है। यद्यपि संस्कृत के कुल शतक काव्यों की संख्या लगभग ९० है, जिसमें कुछ पाथेय शतक आदि भी हैं। आधुनिक संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में यदि हम कहना चाहें, तो प्रसिद्ध संस्कृत कवि श्री भास्कराचार्य त्रिपाठी के शब्दों में कह सकते हैं कि
इनकी इन्द्रियों के प्रशान्त यज्ञ का स्वरूप अव्यावृत है। नाटकों को तो सुनते-देखते समय धनी, गरीब, नागर, वनवासी अपना भेदभाव भूलकर साधारणीकरण की परिधि में आबद्ध हो जाते हैं। मानसिक भोजन प्राप्त करते हैं और उपदेशरंजन के साथ सामाजिक समानता का पाठ पढ़ते हैं। समग्र धर्मो, जातियों एवं भिन्न भिन्न वृत्तियों के नर-नारी समान रसवर्षण से आप्यायित होते है। दीन तथा निराश लोगों में उत्साह, आक्रोशपीड़ित जनता में शान्ति तथा दुर्विनीत विघटनकारियों में अनुशासन का संचार होता है। प्रशान्त यज्ञ में सरलव्यञ्जनामयी भाषा की शब्दगंगा सर्वहित एवं सर्वादय का सङ्कल्प लिए प्रवाहित होती है। सभी अपनी अपनी तपन और उलझन लेकर पहुंचे, तो सब को समान शीतलता और आश्वस्ति मिलती है।