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________________ संस्कृत साहित्य में नूतन प्रयोग जयप्रकाश नारायण द्विवेदी संसार का प्रत्येक वाङ्मय देश, काल, समाज व परिस्थिति के सापेक्ष होता है। अत: उसमें परिवर्तन स्वाभाविक है। विभिन्न स्थितियों में भाषा तथा साहित्य काल व समाज की आवश्यकतानुसार अन्य भाषाओं व उनकी साहित्यिक रचनाओं से प्रभावित होकर परस्पर शब्द, वर्ण्यविषय व काव्यशिल्प का आदान-प्रदान करते हैं। जिस भाषा में यह उदारता नहीं होती, उसे कुछ समय तक ही जन-समर्थन प्राप्त होता है, बाद में वह लोकातीत हो जाती है। वस्तुत: किसी भी भाषा को साहित्यिक या व्यावहारिक आदान-प्रदान के कारण अपने भीतर अन्य भाषा के प्रयोगों को नयेरूप में स्वीकार करना तथा स्वयं के अनेक पूर्व प्रयोगों को विस्मृत भी करना पड़ता है। कभी-कभी एक ही भाषा को सामयिक परिस्थितियों व जरूरतों को मद्देनजर रखते हुए अपने ही भूगोल में अपने स्वरूप को अनेकविध व अनेकरूपात्मक बनाना पड़ता है। ऐसी उदारदृष्टिसम्पन्न भाषा तथा उसका साहित्य, दोनों अपने नूतन प्रयोगों के कारण समाज के लिए उपयोगी, ग्राह्य व नितान्त जीवन्त बने रहते हैं। उदाहरण के लिए सम्पूर्ण मानवजाति के धर्म, कर्म, संस्कृति एवं सभ्यता का मूलाधारभूत वाङ्मय वेद वैदिकभाषा में उपनिबद्ध है जो मन्त्रों के समाम्नाय के रूप में चिरकाल से समझा जाता रहा; किन्तु स्तुति, संगीत, यज्ञ व आयुर्वेद, धनुर्वेद, अर्थशास्त्र तथा शिल्प आदि की सामाजिक आवश्यकताओं के प्राधान्य को देखते हुए न केवल उसे ऋक्, यजुष्, साम एवं अथर्व के रूप में चतुर्विध विभक्त होना पड़ा प्रत्युत नयी सामाजिक तथा दार्शनिक (बौद्धिक) आवश्यकताओं के कारण उसे विशाल ब्राह्मण, आरण्यक व उपनिषद् के स्वरूप भी धारण करने पड़े। आगे चलकर इसी विचार शृखला में धर्मसूत्र, कल्पसूत्र, श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र, स्मृतियाँ और पुराण सभी अपने-अपने समय में नये-नये प्रयोगों के रूप में ही प्रादुर्भूत हुए। यहाँ तक कि व्याकरण, शिक्षा, ज्योतिष, छन्द, निरुक्त और कल्प को वेद के प्रमुख अंगो के रूप में स्वीकारा गया बाद में तो गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक मानव-जीवन का कोई ऐसा अंग नहीं बचा, जिस पर इस साहित्य के मनीषियों ने लेखनी न चलायी हो। आगम, तन्त्र, योग, अश्वशास्त्र, गजशास्त्र, चित्र, वास्तु, काव्य, नौका, विमान और खगोल आदि विविध शास्त्रों में जहां तक सम्भव हुआ, समाज की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिए इस साहित्य ने अपने भीतर नूतनातिनूतन अनेकविध विषयों को स्वीकार किया। ध्यातव्य है कि कहाँ तो उदात्तानुदात्तस्वरित आदि के प्रातिशाख्यगत अनुशासनों से अनुशासित वेदमंत्र, यज्ञीय विधिविधानों से परिपूरित ब्राह्मण-ग्रन्थ, अखण्ड दार्शनिक ज्ञान से सम्पन्न उपनिषद् और कहाँ परवर्ती विशाल साहित्य । यदि वेद में नूतन प्रयोगों से सम्बद्ध उदारता न रही होती, तो प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक अविच्छिन्न रूप में यह अक्षुण्ण न रह पाता। वस्तुतस्तु मन्त्रयुग के समक्ष परवर्ती सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय का विस्तार नूतन प्रयोग ही आगे संस्कृत-साहित्य में बौद्ध कवि अश्वघोष, महर्षि वाल्मीकि, वेदव्यास, भास, कालिदास, कल्हण, बिल्हण, मम्मट से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ आदि में से कोई भी दिव्य, अदिव्य और दिव्यादिव्य किसी भी
SR No.520769
Book TitleSambodhi 1994 Vol 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1994
Total Pages182
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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