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________________ जाणइ पासई ८३ 4. भगवदगीता में ज्ञातु द्रष्टु च तत्त्वेन (11-54), ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिनः (4-34, स्मनात्मान पश्यन् (6-20); ददामि दिव्य ते चक्षुः (11-8); अहे तृलोके द्रष्टुम् (113), तत्त्वज्ञानाथदर्शनम् (13-12); ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति (13-25%3; पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः 5-10), योगिनश्चन पश्यन्ति (15-11%3; आदि वाक्य ज्ञान से, दर्शन की उच्च कक्षा चेत करते हैं । मनु स्मृति एवं भागवत में प्रयुक्त 'मत्रज्ञ' और 'मंत्रदर्शिन् शब्द इसी कक्षा समर्थन करते हैं । 14 रघुवंश और बुद्धचरित में ध्यान स्थिति में देखने की बात है. नने की नहीं, जैसे:-सोऽपश्यत्प्रणिधानेन संततेः स्तम्भकारणम् । (रघुवशम् 1-74)तततेन स दिव्येन परिशुद्धेन चक्षुषा । ददश' निखिल' लोकमादर्श इव निर्मले ॥ (बुद्ध चरितम 4-8) । ये प्रयोग भी दशन की कक्षा (ज्ञानसे) ऊँची बताते हैं। बौद्ध परंपरा में भी "जानाति-पस्सति" शब्द युग्म का प्रयोग मिलता है, जिसका अर्थ लि डिक्शनरी में Recognize, Realize, know बताया है। यहीं अर्थ जैन गमिक रूढप्रयोग “जाणइ-पासइ' का है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। गुजराती षा का रूढप्रयोग "जाणी- जोईने " इसी बात का समर्थक है। इन समस्त तथ्यों के आधार पर यह स्वीकार करना होगा कि भारत में जन आगमिक काल में 'जानाति' और 'पश्यति' शब्द एक ओर सामान्य अर्थ में प्रयुक्त होते थे तथा सरी ओर वे एक दूसरे से भिन्न अथ' के बाचक भी थे। जैन आगभिक 'जाणइ-पासइ' शब्दयुग्म सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अत: वहाँ जाणइ' का संबंध ज्ञान से एवं पासइ का संबध दशन से जोड़नां युक्तिसंगत नहीं है। अतः मति एवं श्रुत की विचारणा में प्राप्त दो पाठान्तरों (क) जाणइ-पासइ, (ख) .. --- जाणइ, ण पासई'-में से 'जाणइ-पासई पाठान्तर युक्ति संगत है। यशोविजयीने जैन तर्कभाषा में ज्ञानविचारणा में दर्शन को छोड़ दिया है, यह सव'था योग्य किया है। ... जहाँ ये दोनों शब्द भिन्न अर्थ के वाचक हैं, वहाँ दर्शन की कक्षा ज्ञान से ऊँची रही है । फलतः ज्ञान के पश्चात् ही दश'न का क्रम रखा जा सकता है। अतः जैन परंपरा में ऐसी व्यवस्था का स्वीकार करना उचित होगा कि जिस तरह केवली के लिए ज्ञानोत्तर दर्शन की व्यवस्था है, ऐसी ही व्यवस्था छद्मस्थ के लिए मति एव अवधि में भी स्वीकारना उचित है । फल स्वरूप दशन अनाकार नहीं हो सकता । अस्तु । पाटीप (1) यह लघु निबंध ओल इन्डिया ओरिएन्टल कोन्फरन्स (35 वाँ सेशन) में पढा गया । . (इ.स. 1990, नवेम्बर) इस निबध के मार्गदशक प. मालवणियाजी हैं। ... : (2) नंदि = नन्दिसूत्रम्. स. मुनि पुण्यविजयः, प्राकृत ग्रन्थ परिषद् प्रकाशन, इ स. 2023, सूत्र 22, 23, 29, 32, 41,59,119 दव ओ ओहिणाणी जहण्णेण अण' ताणि रविदवाइ जाणइ पासइ...न दिसूत्र 28. (3) ज्ञा-वि = ज्ञानबिन्दु प्रकरण, यशोविजयजी, स... सुखलालजी, सिंधी जैन ग्रंथमाला प्रकाशन, अहमदाबाद, ई स. 1942, पृ. 42-62, प्रस्तावना ।
SR No.520767
Book TitleSambodhi 1990 Vol 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1990
Total Pages151
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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