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एच यु, पंडया
जैन परंपरा में भी श्री महावीर के लिए भी अनंत नाण अनंत दंसणक, प्रभूयद सीख सम्वद ंसीव्रग, अनंतनागद ं सीध आदि विशेषण मिलते हैं । इस आधार से ऐसा कहा ज सकता है कि, प्राचीन काल से ही ज्ञान एवं दर्शन दोनों ज्ञप्ति होने पर भी अलग अ माने जाते थे । अतः ये दोनों अभिन्न नहीं हैं ।
ऋग्वेद में ज्ञान, विज्ञान और सर्वज्ञ शब्दों के प्रयोग नहीं मिलते हैं, परन्तु 'शा' ओ 'शू' धातु के विविध प्रयोग विविध अर्थो में अवश्य मिलते हैं, जैसे कि, (१) सामान्य शक्ति परक अर्थ में जानती क, जानताख, जाननूग, जानतेघ, विजानाति, आदि; (२) विशेष ज्ञप्ति परक अर्थ' में विजानीहिच, आजानीतछ, भादि और (३) उच्च ज्ञान परक अर्थ मे विजानाति आदि रूप मिलते हैं ।
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. इसी तरह दृशू घातु के भी रूप प्राप्त होते हैं, जैसे किं, ( १ ) सामान्य जानना अर्थ पश्यथझ, पश्यन्तिञ, पश्यन् पश्यमानासाठ आदि; ( २ ) सम्यक्ज्ञान परक अर्थ में पश्यन्ड संपश्यतिढ आदि; (१) साक्षीभावसे जानना अर्थ में पश्यन् आदिण; (४) प्रकाश में लाना अर्थ' में पश्यति आदि; (५) चारों और से देखना अर्थ में अभिपश्यतिथ आदि; (६) विशेष देखना अर्थ में विपश्यतिद्, प्रपश्यध आदि; और (७) अतीन्द्रिय दर्शन परक अर्थ में पश्यन्न पश्यति दर्शम् अधिदर्शक आदि रूप मिलते हैं ।
कहीं एक ही मंत्र में दृशू धातु का उपयोग जानना और देखना परक अर्थ में हुभा है, जैसे - या [अग्नि] विश्व [सर्वभूतानि ] अभि विपश्यति [ विशेषेण तेजसा प्रेक्षते ], भुवन । [ भूतजातानि] स पश्यति च [ सम्यक् जानाति च ] [ऋ 10-187-4] ।
(१) कहीं दर्शन की सहाय से ज्ञानप्राप्ति की बात है, जैसे पश्यन् ( प्रकाशयन् ) चिके - तत् (जानाति) ऋ 6-9-3, ( २ ) कहीं ज्ञान की सहाय से सामान्य देखने की बात है, जैसे किं चिकित्वान् (जानन् ) अवनश्यति (अवाङ् मुखः सन् ईक्षते ) (ऋ. 8-6-29)। (3) कहीं ज्ञान की सहाय से विशेष देखने की बात है, जैसे कि, तव क्रत्वो (प्रज्ञानेन ) सूर्य पश्येम् । ऋ. 9-4–6, (4) कहीं ज्ञान की सहाय से चारों और देखने की बात है जैसे कि, ऋतुना (पज्ञानेन ) परिपश्यते ( परितः पश्यन्ति ) (ऋ 9-71–9)।
इस आधार से कहा जा सकता है कि, ऋग्वेद काल में 'ज्ञा' और 'हशू' धातु सामान्यज्ञप्ति, विशेषज्ञप्ति एवं उच्च ज्ञप्ति परक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, फिर भी 'ज्ञा' धातु की अपेक्षा 'शू' धातु विशेष स्पष्ट ज्ञानपरक अर्थ' का वाचक रहा है ।
3 उपनिषदों में ज्ञान 11, विज्ञानख, प्रज्ञानग, सर्व उघ, दर्शन, आदि शब्द मिलते हैं । ऐतरेय उपनिषद् में आज्ञान, विज्ञान, प्रज्ञान, संज्ञान, मेघा, धृति, मति, स्मृति, दृष्टि आदि को प्रज्ञान ब्रह्म के पर्याय माने हैं | 12
मुण्डकोपनिषद् में आत्मदर्शन के लिए तीन सोपान बताए हैं (1) आत्मा को जनान>> ( 2 ) फिर उसका ध्यान करना (3) और > उसके बाद आत्म विज्ञान से आत्मा दर्शन करना | 13