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________________ जाणइ - पास एच. यु. पंडया १. जन आगमिक भूमिका में जहाँ जहाँ 'जाण:-पासई' शब्दयुग्म का उपयोग हुमा है, वहाँ समी स्थानों पर 'जाणइ' शब्द प्रथम क्रम में पाया जाता है, और जहाँ नञ् का उपयोग हुआ है, वहाँ न 'पासई' के ही साथ जोड़ा गया है, जाणह' के साथ नहीं, जैसे-'जाणइ ण पासइ ।' नन्दिस्व में पांचों ही ज्ञानों की द्रव्यादि विचारणा में 'जाणइ पासई' का प्रयोग हुआ है । यद्यपि काल को नहीं देखा जा सकता है, फिर भी वहाँ 'जाणइ' के साथ 'पास' भी प्रयुक्त हुआ हैं । एक ओर श्रुत एवं मनःपर्याय को दर्शन नहीं है, फिर भी वहाँ 'माणइ पासइ' का प्रयोग है, तो दूसरी ओर मतिज्ञान को दो दर्शन होते हुए भी वहाँ 'जाणइ, ण पास इ' का प्रयोग किया गया है। अवधि की विचारणा में 'दृशू' धातु का प्रयोग किया गया है-जैसे 'जोइ टूढाण' पासइ', 'अगत्थ गए ण पासइ ।' लोग पासित्ता, आगास पदेसं पासेजा आदि ।' इसके आधार पर ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि नन्दि के समय तक 'जाणइ पासह' का संबंध अनुक्रम के ज्ञानदर्शन के साथ नहीं था। परवर्ती काल के जैनाचार्यों ने 'जाणइ' का संबंध ज्ञानसे, एवं 'पास' का संगंध दर्शन से जोड़ा और इन दोनों का मूल क्रम बदल कर दर्शन का स्थान शानसे पूर्व में रखकर, दर्शन को अनाकार एवं ज्ञान को साकार बताया । परन्तु इस व्यवस्था की संगति के लिए बहुत प्रयत्न करने पडे, जिनके फल स्वरूप [ केवलशान की विचारणा में] क्रमवाद, युगपत्वाद और अमेदवाद अस्तित्व में आए । मतिज्ञान में विषयेन्द्रिय संयोगरूप व्यंजना विग्रह के पूर्व में दर्शन का स्थान युक्तिसंगत नहीं होने से, दर्शन ज्ञान की व्यवस्था के लिए जैनाचार्यों को अधिक खींचतानी करनी पड़ी जैसे अभयदेवसूरिने अवग्रह-ईहा को दर्शनरूप बताया | सिद्धसेन दिवाकर एवं यशोविजयजी ने ज्ञान - दर्शन का अभेद बता कर इस गडबड़ी को ही समाप्त कर दिया । 'दर्शनानन्तर ज्ञानम्' की व्यवस्था में जैनाचार्यों को ही कुछ न कुछ त्रुटि अवश्य दिखाई दी है, अत: इस लघुनिबंध में यह प्रयास किया गया है कि, बैदिक एवं बौद्ध परंपरा के परिप्रेक्ष्य में “जाणइ-पोसइ" का ज्ञान दर्शन से संबंध, कक्षा, क्रम और अर्थ क्या हो सकता है ? २. ऋग्वेद में उच्च ज्ञान के लिए विश्वदर्शतः, विश्वदृष्टःक, सर्वस्य दृष्टार.क, दूरेश:ख, विश्वचक्षा ग, भूर्यक्षाः सहस्त्रचक्षा.ड, सहस्राक्ष:च, सहस्रचेताःछ विचर्षणिःज आदि शब्द मिलते हैं। महाभारतगत विष्णुसहस्तोत्र में विष्णु के सर्वदर्शनः सर्वविद , सर्वक सहस्त्राक्षः, सर्वतश्चक्षुः आदि विशेषण मिलते हैं' । एक ही लोक में रामायण में राम के - और हिनस्तोत्र में विष्णु के लिए सर्वज्ञः एव सर्वही विशेषण दिए गये है ।
SR No.520767
Book TitleSambodhi 1990 Vol 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1990
Total Pages151
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size6 MB
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