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शतपदी तर पद्धति एक अन
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49. एक पक्ष श्रावक पर भश्चत सहित वासक्षेप करता है तो दूसरा पक्ष अक्षत रहित वासक्षेप करता है।
50. एक पक्ष दिन में ही बलि चढ़ाते हैं तो दूसरा रात्रि में भी बलि एक पक्षवाले संघ के साथ चलकर तीर्थयात्रा करते हैं तो दूसरे पक्षवाले रीवा करते हैं।
चढाता है ।
स्वतंत्र रूप से
एक गच्छ में आर्याए श्रावक के हाथ से ही वस्त्र ग्रहण करती है तो आर्याएँ साधुओं से भी बस्त्र ग्रहण करती हैं ।
एक पक्षवाले हरिभद्रसूरि द्वारा रचित लग्न शुद्धि के आधार से रात्रि में भी दीक्षा, प्रतिक आदि करते हैं तो दूसरे रात्रि में दीक्षा प्रतिष्ठा आदि का निषेध करते हैं। एक पक्षवाले अकेली साखी का तथा अकेले साधु का विचरणा शास्त्र विरूद्ध नहीं मानते हैं तो दूसरा पक्ष असावी का तथा अकेले का विशा
मानते हैं। }:
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दूसरे पक्ष की
इस प्रकार की अनेक आचरणाएँ उस समय जैन समाज में प्रचलित थी ।
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इसके अतिरिक्त इस अन्य में कई ऐतिहासिक घटनाएँ भी मिलती है जैसे गिरनार पर्वत पर वस्त्ररहित प्रतिमाएँ है जिन्हें श्वेताम्बर भी मानते हैं । प्राचीन समय में वायड में मुनिसुभगवान की तथा जीवन्त स्वामी की प्रतिमाएँ वस्त्रयुक्त थी । मुनिचन्द्रसूरि साधु के लिए बनाये गये उपाश्रय में नहीं रहते थे । बि. सं. 1229 में कुमारपाल रोजा ने तीर्थयात्रा संत्र निकाला था उसमें हेमचन्द्राचार्य भी संघ में सम्म समय माने तथा वाय मंत्री ने देवर से कुमारपाल राजा के सम्मलित होने की प्रार्थना की थी देवसूरिने उनसे कहा- महानिशीथ सूत्र में साधु को तीर्थयात्रा संघ के साथ यात्रा करने का निषेध किया है। अतः हम यात्रा संघ में नहीं आ सकते ।
इनकी प्रतिभा को देखकर
इस ग्रन्थ में बृहद गच्छ (वच्छ) का इतिहास भी दिया गया है। वह इस प्रकार हैनानक गाँव में नानकच्छ में सर्व देवसूरि हुए। इनके गुरू वैदवासी थे । सर्वदेव सूरि बाल्यावस्था में बडे बुद्धिमान थे। इनके गुरूने इन्हें संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि ग्रन्थों के साथ साथ आगम ग्रन्थों का भी अध्ययन करवाया था। गुरूजी ने 'आदि' और हातली नामक गाँव के बीच वट वृक्ष के डालकर इन्हें आचार्यपद पर अधिष्ठित किया । इनका गच्छ हुआ । इस गच्छ में कई प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे अतः यह गच्छ प्रसिद्ध हुआ।
नीचे राख का वासक्षेत्र गच्छ' के नाम से प्रसिद्ध वृहद् गच्छ के नाम से
हो गये। उनके शिव
इन्हीं 'सर्वदेव सूरि को परम्परा में बीदेव नामके आजसू ने अपने नौ विद्वान शिष्यों को बचाती नगरी में महावीर स्वामी के मन्दिर में एक ही समय में आचार्य पद पर अधिष्ठित किया । नौ आचार्यों में शांतिसूरि भी एक व्यलिया गच्छ की स्थापना की। देवेन्द्र नाम आचार्य ने संग खेडिया नामक गच्छ बनाया । अन्य शिष्यों में चन्द्रप्रभस्त्रि, शीलगुणसूरि, पद्मदेवसूरि एवं भद्रेश्वरसूरि थे इन चार आचार्यों से वि. 1149 में पूरनिया गच्छ की चार शाखाएँ निकली।