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चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
नैयायिक आत्मधर्मशान को ही प्रकाशक मानते हैं जबकि अद्वैत वेदान्त में भात्मतत्व को ज्ञान की प्रक्रिया में (बृत्ति के साथ ) प्रकाशक के रूप में स्वीकारा गया है। ऐसा इसलिए कि अद्वैत वेदान्त में ज्ञान को आत्मा का धर्म न मानकर अन्तःकरण का धर्म माना गया है जबकि न्यायदर्शन में ज्ञान आत्मा का ही धर्म गृहीत होता है । ज्ञान की प्रक्रिया भी दोनों संप्रदायों में भिन्न-भिन्न होते हुए भी दोनों में इस बात का साम्य है कि बिना आत्मतत्व के विषय का प्रकाशन नहीं हो सकता। घटादि का प्रकाशन चाहे नैयायिक रीति से ज्ञान द्वारा माना जाय या अवतियों की रीति से वृत्तिप्रतिफलित चैतन्य के द्वारा, दोनों ही मतो में यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि ज्ञान अथवा चेतन तत्त्व जो सबका प्रकाशक है उसको अपने (स्वके) प्रकाशन के लिए किसी अन्य साधन की अपेक्षा होती है या नहीं ? नैयायिक व्यवसायामक ज्ञान को स्वप्रकाश नहीं मानते वरन् अनुव्यवसाय से गृहीत मानते हैं । उस भनुव्यवसाय को अन्य अनुव्यवसाय से प्रकाशित मानते हैं। इस प्रसंग में जिज्ञासा होगी कि यह तो स्पष्ट रूप से अनवस्था की स्थिति है ! किन्तु यहाँ न्यायतात्पर्यटीका से आचार्य वाचस्पति मिश्र के अनुसार समझना चाहिये कि ३-४ कोटियों के बाद चरम ज्ञान की प्रकाशता के विषय में प्रमाण जिज्ञासा की समाप्ति हो जाने के कारण उस चरम ज्ञान का प्रकाशन उसमें प्रकाशता होने पर भी नहीं सा होता । अतः नैयायिक भी कथंचित् स्वप्रकाशादि कहे जाते हैं। स्वप्रकाशत्व एवं परप्रकाशत्व का संक्षेत्र में सामान्य परिचय दे लेने के पश्चात् चित्सुखाचाय का स्वप्रकाश के. संबन्ध में क्या विचार है उस पर प्रकाश डाला जायेगा क्योकि यही इस निबन्ध का विषय है। अतः वह स्वप्रकारात्व जिसे अद्वैती आंजस्येन (पूर्णरूप से) तथा नैयायिक कथंचित् । किसी प्रकार से ) स्वीकार करते हैं, उसका लक्षण क्या है, उसमें प्रमाण क्या है, तथा युक्ति के आधार पर वह कहां तक निदुष्ट सिद्ध होता है, इसका विचार किया जायेगा।
भारतीय शास्त्र चिंतनपति में तीन शैलियां वाद, जल्प और वितंडा सुप्रचलित हैं। वाद शैली में सिद्धान्ती विपक्ष में "संभाव्य" सभी सिद्धान्तों, विचारों एवं तों को पूरी विशदता के साथ स्थापना पूर्वक सिद्धान्त पक्ष से उन सभी तों का निराकरण करके अपने सिद्धान्त को. निदुर एवं स्थिर सिद्धान्त के में स्थापित करते हैं। प्रत्यक्तत्वती का इस शैली का आदर्श उदाहरण है। अपने उक्त ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण के अन्त में चिरसुखाचार्य निम्न वाक्य कहते हैं:
___“नमस्कुर्मी नृसिंहाय स्वप्रकाशचिदात्मने"
और पुनः स्वयं ही यह पूछते हैं कि “स्वप्रकाश" शब्द का अर्थ क्या है ? स्वप्रकाश भप्रासंगिक न हो इसके लिए उसका प्रसंग छोड़कर ही (जसा नाटकों में नान्दी होता है) उसकी चर्चा करना प्रारम्भ करते हैं । स्वप्रकाश की चर्चा का प्रारम्भ उस निर्वचन या लक्षण ( उसकी व्यावृत्ति या व्यवहार के लिए) से किया जाता। है। निसायाचा पूर्व पक्ष के रूप में स्वप्रकाश के लक्षण को ग्यारह विकही में उपस्था पित करते हैं और सभी लक्षणां का विश्लेषण करके उन्हें दोषयुक्त दर्शाकर इस बात की घोषणा .. करते है कि स्वप्रकाश का कोई भी लक्षण नहीं किया जा सकता। उसके उपरान्त स्वप्रकाश