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________________ गौरी मुकर्नी के लिए कोई भी. प्रमाण नहीं हो सकता यह भी पूर्व पक्ष के रूप में कह लेने के पश्चात् एकादश लक्षण को ही स्वप्रकाश का निदु लक्षण सिद्ध करते हैं । यहाँ से चित्सुखाचार्य सिद्धान्त, पक्ष के रूप में आते हैं। लक्षण बता लेने के पश्चात् स्वप्रकाश में प्रमाण भी देते हैं। ___लक्षणों की चर्चा करने के पूर्व यह कह लेना अप्रासंगिक न होगा कि आचार्य ने खंडनखंडवाय1 के आधार पर तथा स्वप्रतिभा से स्वप्रकाश शब्द के जिन ग्यारह लक्षण विकल्पों को उपस्थापित किया, उनमें से प्रत्येक लक्षण स्वयं में पूर्ण होते हुए स्वप्रकाश शब्द का सही, निर्वचन करते हैं और साथ ही साथ उन निर्वचनों में कोई व्याकरणात्मक दोष भी नहीं पाया जाता है । इस स्थिति में, यह स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठ सकता है कि (1); व्यर्थ इतनेलक्षण विकल्पों की क्या आवश्यकता थी (2) क्यों नहीं स्वाभिमत लक्षण का उपन्यासः, करके, मात्र, उसका परीक्षण किया गया ? विचार करने पर इसके तीन कारण प्रतीत होंगे : (1) लक्षण ,विकल्पों का. उपन्यास अरुन्धतीनिदर्शनन्याय से होता है। (2) प्राभाकर, विज्ञानवादी, बौद्धादि, मलों में स्वीकृत स्वप्रकाश से वैलक्षण्य सिद्ध करने के लिए स्वप्रकाश विषयक अन्यमतमान्य लक्षणों का पूर्व पक्ष के रूप में उपन्यास आवश्यक था । (3) शान की अद्वैत मतमान्य स्वप्रकाशता उन लक्षण-विकल्पों में स्पष्ट नहीं है, अतः सभी लक्षणों के लक्ष्यभूत आत्मा को अपेक्षा से विकल्प-. विस्तार, करना भायाज्य था । यहाँ यह भी विचारणीय है कि प्रथम लक्षण का चतुर्थ में तीसरे का, नौवे में, छठे ब. सातवे का आठवे में एवं दूसरे का पांचवे में अन्तर्भाव देखा जा रहा है तो वह, फौन सा. कारण है कि जहाँ छः ही विकल्प पर्याप्त थे वहाँ ग्यारह विकल्प, दिये गये है इसका कारण यही कहा जा सकता है कि आचार्य स्वाभिमत लक्षण ऐसा देना चाहते थे जिसमें किसी भी प्रकार के दोषोद्भावन की संभावना न रह जाए । या लक्षण चारों तरफ से, ऐसा कसा हुआ हो कि कोई भी खण्डन का साहस न कर सके । ___ अब उन सभी लक्षणों पर विचार होगा जिनको आचार्य ने पूर्वपक्ष के रूप में हमारे सामने रखा। (1), स्वश्चासौ प्रकाशय च (स्वः च असन-प्रकाशः च) अर्थात् स्वत्वे सति प्रकाशत्वम् । इस प्रकार "स्वप्रकाश" के प्रथम निर्वचन का तात्पर्य है ऐसा तत्व जिसमें स्वरन (स्व की सत्ता या भाव) हो और प्रकाश भी। (2) स्वस्य स्वयमेव प्रकाशः परः । (स्व. इति विषयक्ष्य स्वयमेव- प्रकाशस्त्रम् ) (अर्थात् इसको प्रकाशित करने के लिए प्रकाशान्तर की भावश्यकता नहीं होती) (3) सजातीय प्रकाशाप्रकाश्यत्वम् (सजानी येन. प्रकाशेन अप्रकाश्यत्वम् )वह जो अपने सजातीय (जैसे घट का सजातीय घट ही होता है) प्रकाश से प्रकाशित न हो.. (या अप्रकाशित रहे)। (4) स्वसत्तायां प्रकाशव्यतिरेकहितस्वम्-बह भिसको अपनी सत्ता जब तक है तब तक वह प्रकाश के व्यतिरेक या अभाव से रहित रहता है अर्थात् जितने काल तक भी इसकी सत्ता है. उसमें मविच्छिन्न रूप से प्रकाश की विद्यमानता भी होती है। वह कभी भी प्रकाशहीन-नहीं होता जैसे। दीपादि हो जाते हैं। (5) स्वव्यवहारहेतु प्रकाशत्यम्-वह जो अपने व्यवहार का हेतु, (कारण) भी हो और जिसमें प्रकाशता भी हो। (चूकि किसी का व्यवहार उसके ज्ञान पर निर्भर होता है । अतः ज्ञान को व्यवहार का हेतु (कारण) कहा जा सकता है। तब लक्षण होगा शानरूपता ही स्वप्रकाशता है। इस लक्षण से यह भ्रम हो सकता है कि शान एवं स्वप्रकाशता में विषय-विषयी का सम्बन्ध है, अतः इसके परिहार के लिए अगला एवं छठा लक्षण दिया गया । (6) ज्ञानविषयत्वम् (ज्ञानस्य अविषयत्वम् )--वह जोहान का विषय न हो । ज्ञान का अविषयत्व का (5) स्वव्यवहारहेतु UN का व्यवहार उसका ज्ञानरूपता
SR No.520763
Book TitleSambodhi 1984 Vol 13 and 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, Ramesh S Betai, Yajneshwar S Shastri
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1984
Total Pages318
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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