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गौरी मुकर्जी
अर्थात् भिन्न-भिन्न सामग्री (सर्व विज्ञान हेतृत्था.." यावती काचिद्मणस्मरणरूपा-प्रकरण पंचिका सं. 137, 4 1671, ज्ञानस्य स्वप्रकाशस्वनिरूपणम्, पृ. 130-..."। संवित्तस्यप्रकाशत्व विचार, पृ 333......) से प्रत्यक्ष, अनुमेय, मत्स्य आदि विभिन्न विषयों में उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष, अनुमिति, स्मृति आदि ज्ञान भी स्वस्वरूप के विषय में प्रत्यक्ष ही है, परन्तु ये सब स्वप्रकाशवादी ज्ञान के स्वरूप के विषय में एकमत नहीं हैं । विज्ञानवादियों के अनुसार ज्ञान भिन्न अर्थ का अस्तित्व ही नहीं है (प्रकाशमानस्तादारम्यात् स्वरूपस्य प्रकाशकः यथा प्रकाशोऽभिमतः तथा धीरात्मवेदिनो2) अर्थात् उनके लिए जो कुछ भी है सब ज्ञान ही है। और ज्ञान भी साकार माना जाता है। प्राभाकर मीमांसक यथार्थवादी होने के कारण बाह्य जगत की सत्ता को मानते हैं और यह भी मानते है कि उसका संवेदन होता है । भदत वेदान्ती ज्ञान को ब्रह्मरूप मानते हैं अतः ज्ञान की निस्यता भी उनके यहां मानी जाती है । जैनी भी प्राभाकर मीमांसको की तरह यथार्थवादी होने के कारण बाह्य जगत की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते हुए ज्ञान को जन्य (किसी से उत्पन्न अतः अनित्य ) मानते हैं ।
परप्रत्यक्षवादियों में सांख्ययोग और न्याय-वैशेषिक की गणना की जाती है। उनके अनुसार ज्ञान का स्वभाव प्रत्यक्ष योग्य है, पर वह अपने आप प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इसकी प्रत्यक्षता अन्याश्रित है । अतः ज्ञान चाहे प्रत्यक्ष हो या परोक्ष हो (अनुमिति, शाब्द, स्मृतिजन्य मादि), फिर भी वह सब स्वविषयक अन्य के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से गृहीत होते ही हैं। परप्रत्यक्षस्व के विषय में इनका ऐक मत्य होने पर भी “पर" शब्द के अर्थ के विषय में उनमें मतभेद है । सांख्य-योग के अनुसार " पर " शब्द का अर्थ है चैतन्य, जो पुरुष का सहज रूप है और जिसके द्वारा ज्ञानात्मक सभी बुद्धिवृत्तियां प्रत्यक्षतया भासित होती हैं (अर्थात् बुद्धि के द्वारा प्राप्त ज्ञान का ज्ञान चैतन्य करता है)। न्याय-वशेषिक के अनुसार “पर" का अर्थ है अनुव्यवसाय, जिसके द्वारा पूर्ववती कोई भी ज्ञान व्यक्ति प्रत्यक्षतया गृहीत होता है ।
ज्ञान का ज्ञान स्वप्रकाश न मानने से अनवस्थादि दोष के साथ-साथ एक और भी कठिनाई है । ज्ञान होने के साथ ही साथ यदि ज्ञान का ज्ञान न हुआ तो फिर ज्ञान कभी भी नहीं हो सकता, क्योंकि दूसरे क्षण में वह ज्ञान, नहीं रह जाता वरन् स्मृति हो जाती है । इसी कठिनाई को ध्यान में रखकर कुमारिल भट्ट ने ज्ञान के ज्ञान का अनुमेय या परेराक्ष माना है। अतः परानुमेय अर्थ में परप्रकाशवादी केवल कुमारिल भट्ट हैं जो ज्ञान को स्वभाव से ही परोक्ष मानकर तजवन्यज्ञाततारूप लिंग के द्वारा अनुमित मानते हैं, जो कार्य हेतुक कारणविषयक है। कुमारिल के अतिरिक्त अन्य कोई भी ज्ञान को अत्यन्त परोक्ष नहीं मानता । प्राभाकर मतानुसार नो फलसंविति से ज्ञान का अनुमान माना जाता है वह कुमारिल सम्मत प्राकट्यरूप फल से होने वाले ज्ञानानुमान से बिल्कुल भिन्न है। कुमारिल तो प्राकट्यरूपी फल से ज्ञान जो आत्मसमवेत गुण है उसका अनुमान मानते हैं, जबकि प्राभाकर मतानुसार संविदरूप फल से अनुमित होने वाला ज्ञान वस्तुतः ज्ञानगुण नहीं किन्तु ज्ञानगुणजनक सन्निकर्ष आदि जड़ सामग्री ही है।' इस सामग्री रूप भय में ज्ञान शब्द के प्रयोग का समर्थन करणार्थक “अन्" प्रत्यय मानकर किया जाता है।