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चित्सुखाचार्य के अनुसार स्वप्रकाशता की अवधारणा
गौरा मुकर्जी
दार्शनिक क्षेत्र में शान स्वप्रकाश है या परप्रकाश है इस प्रश्न की बहुत लम्बी व विविध कल्पनापूर्ण चर्चा है । इस विषय में किसका क्या पक्ष है इसका वर्णन करने से पूर्व कुछ सामान्य बातों का ज्ञान आवश्यक है, जिससे स्वप्रकाशत्व एवं परप्रकाशत्व का भाव ठीक ठीक समझा जा सके :
(1) कुछ दार्शनिकों का यह सिद्धान्त है कि ज्ञान का स्वभाव प्रत्यक्ष के योग्य है, कुछ अन्य दार्शनिकों का विरुद्ध मत है। उनके अनुसार शान का स्वभाव परोक्ष है, प्रत्यक्ष नहीं । इस प्रकार प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से ज्ञान के स्वभावभेद की कल्पना ही स्वप्रकाशत्व परप्रकाशत्व की चर्चा का मुख्य आधार है।
(2) स्वप्रकाश शब्द का अर्थ है स्वतः स्फुरण अर्थात् अपने आप ही ज्ञान का प्रत्यक्ष रूप से भासित होना। इसे यूभी समझा जा सकता है-जब किसी ज्ञान-व्यक्ति की सृष्टि होती है तब “उसको जान लिया" यह ज्ञान भौ साथ ही साथ हो जाता है। परन्तु पर प्रकाश शब्द के दो अर्थ हैं जिनमें से प्रथम तो पर प्रत्यक्ष अर्थात् एक ज्ञान का भन्य ज्ञान व्यक्ति से भासित होना । दूसरा अर्थ है परानुमेय अर्थात् ज्ञान के फल से ज्ञान की अनुमिति होना।
(3) स्वप्रत्यक्ष का अर्थ यह नहीं है कि यदि कोई ज्ञान स्वप्रत्यक्ष है अतः उसको अनुमानादि द्वारा बोध होता ही नहीं । वरन् इसका इतना ही अर्थ समझना चाहिए कि जब कोई ज्ञान व्यक्ति पैदा होता है तब स्वाधार प्रमाता को उसका प्रत्यक्ष होता ही है साथ ही अन्य प्रमाताओं को उसकी परोक्षता ही है। जैसे यदि कलम का ज्ञान किसी को “ कलम के साथ इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने से" होता है तब उस कलम का ज्ञान उस व्यक्ति के लिए तो प्रत्यक्ष ही होगा लेकिन यदि उस कलम की चर्चा वह अन्य व्यक्ति से करता है तो अन्य व्यक्ति के लिए बह प्रत्यक्ष न रहकर परोक्ष होगा। इसके अतिरिक्त स्वाधार प्रमाता के लिए यदि बह शान व्यक्ति वर्तमान नहीं है तो परोक्ष ही है। परप्रकाश के परंप्रत्यक्ष अर्थ के पक्ष में भी यही बात लागू है अर्थात् वर्तमान ज्ञान-व्यक्ति ही स्वाधार प्रमाता के लिए प्रत्यक्षरे अन्यथो नहीं।
स्वप्रकाशवादियों में हम जिनकी गणना कर सकते हैं वे हैं विज्ञानवादी बौद्धि प्रामावर मीमांसफ, अद्वत वेदान्ती और जैनी । बौद्ध विज्ञानवादी, प्राभाकर मीमांस के इत्यादि सभी इस बात पर सहमत हैं कि ज्ञान मात्र स्वप्रत्यक्ष है अर्थात् ज्ञान प्रत्यक्ष हो या अनुमिति, शब्द. स्मृति आदि रूप हो फिर भी वह स्वरूप के विषय में साक्षात्कार रूप (अपरोक्षानुभूति रूप) ही , है। उसका अनुमितित्व, शाब्दत्व, स्मृतित्व आदि अन्य ग्राह्यस्व की अपेक्षा से समझना चाहिए,