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जयसिंह सिद्धराज का विरूपाक्ष मन्दिर (बिलपांक) का अभिलेख
प्रशस्ति के रचयिता श्रीपाल का नाम २८वे पद्य में आता है। श्रीपाल को सिद्धराज अपना भाई (प्रतिपन्नबन्धु ) मानता था । वडनगर प्रशस्ति और वैरोचनपराजाय श्रीपाल कवि की अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में हैं । इनकी कार्यक्षमता का वर्णन करते हुए एक ही दिन में महाप्रबन्ध निर्माण में समर्थ बताया गया है । वडनगर प्रशस्ति के समान यहाँ भी उन्हें 'क िचक्रवर्ती उपाधि से विभूषित किया गया है। राजगच्छीय प्रभा चन्द्राचार्य कृत प्रभाषकचरित (स. १३३४ / ई०१.७७), में श्रीपाल 'कवीश्वर,' 'महाकवि' तथा 'कविपुङ्गव' कहा गया है।
श्रीपाल कवि की रचना बडनगरप्रशस्ति तथा प्रस्तुत अभिलेख में एक ही प्रकार के कथानक में कुछ भेद है, जैसे वडनगर प्रशस्ति में ब्रह्मा के चुलुक से चौलुक्य वंश की उत्पत्ति वर्णित है जबकि इस अभिलेख में शिव के चुलुक से |
पद्य २९ साहित्य में प्रवीण, गुणीजन में प्रधान तथा मुनिम में श्रेष्ठ श्री जिनभद्राचार्य का उल्लेख करता है जिनका निरुद राजवल्लभ' था । अन्तिम पद्य सिद्धराज की आशा से स्पष्ट तथा शुद्ध अक्षरों में गगाधर नामक ब्राह्मण से इस प्रशस्ति का उत्कीर्णन करवाने का उल्लेख करता है । अत: जिनभद्राचार्य को 'लेखक" मानना उचित नहीं। 17 वाकणकर महोदय श्रीपाल
और जिनभद्राचाय को एक मानते हुए कहते हैं कि "श्रीपाल एक जिनभद्राचाय थे" ।" लेकिन प्रशस्ति से दोनो ही भिन्न व्यक्ति जान पड़ते हैं । संभवतया उनकी निगरानी में यह लेख उटूंकित हुआ होगा । (हो सकता है यह आचार्य बहद्गच्छं। जिनभद्रार्चाय से अभिन्न हों। उन का समय भी यही है ।)
अभिलेख की मिति संवत् ११९८ आषाढ़ सुद १ दी हुई है । यह विक्रम संवत् में है जो २८ अप्रैल ११४. ई. के बराबर है । अन्त में मंगल सूचक "मंगल महाश्री:" शब्द है।
मूलपाठ GO ॥ ॐ नमः शिवाय ॥ यमष्टाक्षो (ब) मा स्मरति भजति द्वादशाक्षः कुमारः सहस्राक्षः शक्रो नमति नुवति द्विस्तदक्षः फणींद्रः । असौ वामाक्षीणां स्मरपरवसं(शं) लक्षणीयोक्षिलक्षविरू-॥ पाक्षः क्षिप्रं क्षपयतु सतां कर्मजातं विरूपं ॥१॥ ललाटाक्षिज्वालाज्वलितवपुपा पुष्पधनुषा ।। स्फुटागमा वामां दृशमममृत20 चा(वा)पी प्रविशता । यदद्धे भ्रूच्याजातट इव विमुक्तं धनुरिदै वि-* रूपाक्षः कांताशव(ब)लितशरीरः स जयति ॥२॥