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अर्बुदाचल का जैन अभिलिखित साहित्य मिलते है । इस से हमें पता चलता है कि धर्मदेव का उस जमाने में समान पर भारी
प्रभाव था । १६. राजत्वकाल की माहिती जो अन्यथा प्राप्त नहीं होती है, वह ऐसे अभिलेखों से मिलती
है । उदा० आबु के परमार राजा कृष्णराज प्रथम की जानकारी साहित्य से प्राप्त हुई है. लेकिन उनके राजत्वकाल का उल्लेख सिर्फ अभिलेख से प्राप्त होता है। (लेखांक ४८६, भाग ५) । इस लेख में स. १०२४ में ईस राजा के शासन काल में महावीर भगवान की प्रतिमा बनायी जाने का उल्लेख है। इस से यह संभव हुआ
कि उस समय कृष्णराज का शासन था। १७. धार्मिक स्थलों में जाते वक्त यात्रियों को कर देना पडता है, लेकिन अबु'दाचल के
कई लेखों से यह पता चलता है कि ऐसा कर लेना बंध किया गया था । (लेखांक २४०-२४३, भाग २)। विशलदेव के समय को स. १३६० के एक लेख में (क्रमांक २, भाग २) और राजधर रावल के समय का एक लेख में (कमाक ४२६ भाग २) स. १४९७ का है, इस में और महाराणा कुंभाजी के स. १५०६ के लेख (क्रमाक २४०-२४३, भाग) में भी यात्रा कर रह करने की सूचना दी गई है। इस से यह प्रतीत होता है कि राजा लोग भी कभी कभी प्रजाकल्याण की नाडको पहचान लेते थे और उनकी सुविधाएँ लक्ष्य में लेकर । रुरी धाराकीय घोषणा भी कर
लेते थे। १८. अर्बुद पर्वत पर तेरहवीं सदी दरम्यान जैनों की बसती थी। उनके प्रमाण भी हमें इन
अभिलेखों से प्राप्त होते हैं स . १२४५ (लेखांक ५५, भाग २) स. १२२२ (लेखांक १७१, भाग २) और स. १२८७ (लेखांक २५१, भाग २) के लेखो में दी गई हकीकतों से यह जानकारी प्राप्त होती है। इस में लुणवसही की व्यवस्था के लिए जैनों को नेमिनाथ की पंचतिथि मनाने का स्पष्ट आदेश दिया गया था। चातुर्मास के लिये यहां जैन साधु रहते थे इन की जानकारी हमें स. १५८३ और १७८५ के लेखों से होती है (लेखांक १९५, १९७, भाग २)।
७.१ : उपसंहार
इन अभिलेखों से प्राप्त माहिती को प्रस्तुत विवरण करने के बाद कुछ सुझाव रखनो उचित समजता हूँ। १. ऐतिहासिक भूगोल कि दृष्टि से ये अभिलेखों का अध्ययन रसप्रद और महत्त्वपूर्ण होगा।
साथ ही जीनियॉलांजिकल स्टडी भी रसप्रद रहेगा । २. स्थलनाम और व्यक्तिनाम के अभ्यास भी इतिहास और सस्कृति की दृष्टि से अपेक्षित है।
गाँव और सवत के साथ ही उल्लेख की वजह से गांवों का प्राचीन इतिहास के आलेखन करना जरूरी है।