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डा० लक्ष्मीशंकर निगम
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तत्पश्चात् समुद्र के गैजयन्त द्वार पहुंचने का उल्लेख है । गैजयन्त द्वार को जम्बूद्वीप का दक्षिणी द्वार कहा गया है ।३६ अतः प्रतीत होता है कि पूर्वी भारत की विजय करते हुए, वह दक्षिण समुद्र तक पहुँचे थे । इसके पश्चात् पश्चिमी भारत की विजय यात्रा करता हुआ सिन्धुद्वार (मुहाने) तक पहुँचने का उल्लेख है। इस सम्बन्ध में दृष्टव्य है कि हरिवंशपुराण३७ में विजयाद्ध के निकट पचनद तीर्थ का उल्लेख है । ब्राह्मण पुराणों के अनुसार यह एक प्रसिद्ध तीर्थ है तथा सिन्धु जहाँ सागर से मिलती है, वहां स्थित है।३८ यहां प्रभासदेव का उल्लेख मिलता है जिसका समीकरण कठियावाड़ के प्रसिद्ध प्रभासपाटन अथवा सोमनाथ पाटन से किया जा सकता है ।३८ तत्पश्चात् वनवेदिका और नदी का सहारा लेते हुए विजयाद्ध पर्वत तक पहुँच का उल्लेख है । स भवतः नर्मदा के तट से वे विजया अथवा विन्ध्य के मध्यत्रोणी तक पहुँचे थे, जहाँ नैताब्य नामक शिखर स्थित था । पुनः पश्चिम
और उत्तर में पर्वतीय क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करते हुए गंगा के किनारे-किनारे पुनः विजया पर्वत पर पहुँचने का उल्लेख है । यहाँ विन्ध्य के पूर्वी भाग का उल्लेख किया गया प्रतीत होता है।
इस प्रकार जैन साहित्य में वर्णित विजयाद्ध विन्ध्य पर्वत ही प्रतीत होता है । तिलोय. पणती में वर्णित खाद्यान्नों की सूची से भी इसकी पुष्टि होती है । इसमें विशिष्ट प्रकार के खाद्यान्नों का उल्लेख किया गया है, जो मालवा, बुन्देलखण्ड तथा नर्मदा के तटवर्ती क्षेत्र में प्रमुख रूप से उत्पन्न होते हैं । जम्बहीवपण्णत्ती४० में विजयाद्ध के स्थान पर तात्य का उल्लेख किया गया है । इस सम्बन्ध में दृष्टव्य रहे कि तिलायपणत्ती एवम् अन्य ग्रन्थों में गैतादप का विजयाद्ध के एक प्रमुख शिखर के रूप में वर्णित किया गया है । पर्वत का प्रमुख शिखर होने के कारण ही संभवतः जम्बूदीवपण्णत्ती में पूरे पर्वत का नाम नैतादध के रूप में उल्लिखित किया गया हैं । बी० सी० लाहा४५ शैतादय का समीकरण विन्ध्यपर्वत से करते हैं, अतः विजयाद्ध का तादात्म्य विन्ध्यपर्वत से किया जाना समुचित एवम् तकसंगत प्रतीत होता है।
संदर्भ
* दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर के तत्वावधान में दिल्ली में आयोजित
जम्बूद्वीप सेमिनार, १९८२, में प्रस्तुत शोध-पत्र । १. ति.प० (तिलेायपण्णसी, सम्पादक-प्रो० ए० एन० उपाध्ये एवं प्रो० हीरालाल जैन,
शोलापुर, भाग-१, (१९५६, द्वितीय संस्करण), भाग-२ (१९५१, प्रथम संस्करण),
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आदिपुराण, १८, १४९ ४. ति०प०, ४, १०९, ४, १३३, ४,१४०-१४४