________________
जैन साहित्य में वर्णित विजयाद्ध पर्वत का अभिज्ञान
४७
संस्कृत साहित्य में अत्यधिक मिलता है । २२ जैन पद्मपुराण के अनुसार राम और लक्ष्मण मालवदेश में चित्रकूट पहाडी के पाद तक आये थे। यहां वन इतना सघन था कि मनुष्य के निवास का पता लगाना मुश्किल था । २३ उदयपर्वत२४का समीकरण उदयगिरि से किया जा सकता है । यह विदिशा जिले में स्थित एक महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है।२५ सिंधकक्ष के विषय में अनुमान किया जा सकता है कि यह मालवा में प्रवाहित होनेवाली कालीसिन्धु के तटवर्ती क्षेत्र का कोई स्था। रहा होगा । कालीसिन्धु नदी का उद्गम पौराणिक परियात्र पर्वत से माना गया है ।२७ इसका उल्लेख दक्षिण सिन्धु३८ तथा सिन्धु पणी२४के रूप में भी हुआ है । सूर्यपुर3°का समीकरण गुजरात में स्थित सूरत से किया गया है । यहाँ शंकरा वार्य ने अपना भाष्य लिखा था।३१ गरुडध्वज३२ के रूप में संभवतः बेसननगर स्थित गरुड़ध्वज (स्तंभ) का उल्लेख किया गया है । जिसमें हेरियोडोरस का प्रसिद्ध लेख३३ उत्कीर्ण है ।
इस प्रकार इन स्थानों का न्यूनाधिक सम्बन्ध विन्ध्य पर्वत श्रृंखला तथा उससे संलग्न क्षेत्र से स्थापित किया जा सकता है ।
विजयार्द्ध को उल्लेख गंगा के प्रवाह मार्ग के सम्बन्ध में भी मिलता है। तिलायपण्णत्ती३४ में कहा गया है हिमवानपर्वत के एक द्रह/पद्मद्रह जिसकी पूर्व दिशा से गंगा निकलती है, तत्पश्चात् यह नदी भूमिप्रदेश में मुड़ती हुई विजयाद्ध अथवा रजतगिरि को प्राप्त करती है । इस सम्बन्ध में हमें ज्ञात है कि गंगा, हरिद्वार से बुलन्दशहर तक दक्षिणाभिमुख तत्पश्चात् इलाहाबाद तक, जहा यमुना इसमें मिलती है, दक्षिणपूर्वाभिमुख है । इलाहाबाद से राजमहल तक इसका प्रवाह पूर्वाभिमुख है । राजमहल की पहाड़ियों का उल्लेख करते हुए, संभवतः विजयाई का नामोल्लेख किया गया है।
विजयाद्ध से संबंधित विवरण चक्रवर्ती भरत के विजय के संदर्भ में भी मिलता है। भरत सर्वप्रथम पूर्व दिशा में गंगातट का सहारा लेकर समुद्र पर्यन्त गंगाद्वार तक पहुंचते हैं। वहाँ से मगध की दरी बारह योजन बताई गई है। इसके पश्चात दक्षिण की ओर जयन्तद्वार में प्रवेश करते हुए सिंधु नदी के मनाहर द्वार में पहुंचते हैं और प्रभासदेव को सिद्ध धारते हैं। वहां से पूर्वाभिमुख हेकर विजयाद्ध पर्भत की वनवेदिका तक नदी तट से, पोत के मध्यम कूट पर्णत तक, तत्पश्चात् बन के मध्य से उत्तर की और गमन करते हुए विजयाद्ध के मध्य तक पहुँचते हैं। यहां इस शिखर पर रहनेवाला गैतात्य देव उपस्थित होता है। यहाँ से चक्रवर्ती भरत सिन्धुनदी के विशाल वन में प्रवेश करते हैं और पश्चिमी भाग के म्लेच्छ राजाओं को पराजित करते हुए सिन्धु नदी के तटवर्ती मार्ग का अनुसरण करते हुए हिमवान पर्वत में पहुँचता है, वहां से वृषभगिरि पहुँचता हैं। उत्तर की ओर जाते हुए गंगाकूट का पारकर गंगानदी के तटवर्ती माग का अनुकरण कर दक्षिण में विजयार्द्ध पर्वत में पहुंचता है। उ4
इस प्रकार चक्रवर्ती भरत की विजय यात्रा रघुवंश में वर्णित रधु के दिग्विजय सदृश्य दिखाई देती है । भरत सर्वप्रथम गंगा का अनुकरण करते हुए गंगा सागर पहुँचते हैं।