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साध्वी श्री सुरेखाश्री
खुशी हुई । रूपसुदरी ने सर्ववृतान्त अपने भाई से कहा तब मामा अपनी भाणजी व जवाई को स्वगृह ले गया । इसी बीच एक दिन राजा प्रजापाल जब वहाँ से गुजर रहा था तब सहसा ही दृष्टि ऊपर की ओर गई जहाँ मयणा व श्रीपाल बैठे थे। अपनी पुत्री को अन्य पुरुष के साथ बैठा देख मन में बहुत ही विषाद करने लगा । इधर पुण्यपाल साले ने जब अपने बहनोई की दशा देखी तो जाकर शंका का समाधान किया । राजा को अपनी बरता का भान हुआ और मयणा से अपने कुकृत्य की क्षमा चाही । तब मयणा ने पिताश्री से कहा कि यह सब तो इस वकृत कर्मों का ही दोष है । राजा प्रजापाल अपनी पुत्री और जामाता को ससम्मान सत्कारपूर्वक राजभवन में ले गया ।
एक दिन जब श्रीपाल अश्व पर सवार होकर हवाखोरी हेतु बाहर गया तब किसी से श्रीपाल ने अपना परिचय देते हुए सुना कि राजा का जवांई जा रहा है । तब श्रीपाल ने विचार किया उत्तम पुरूष स्वगुणों से पहचाना जाता है, जो पिता के नाम से पहचाना जाय वह मध्यम होता है, मामा के कारण प्रसिद्ध हो वह अधम किंतु श्वसुर के नाम से जाना जाय वह तो अधमाधम होता है । इन हृदयभेदी शब्दों से सम्बोधि तहोने पर श्रीपाल ने श्वसुर गृह का परित्याग करने का विचार किया तथा परदेश जाकर धन प्राप्ति कर शौर्यबल से पिता का राज प्राप्त करने का निर्णय किया । इस प्रकार माता व मयणा की अनुमति लेकर वह वहां से रवाना हो गया ।
ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ श्रीपाल एक पर्वत के समीप पहुँची । देखा कि वहाँ जंगल में एक पुरुष विद्या की साधना कर रहा है, उसे एक उत्तर साधक की जरूरत थी। श्रीपाल ने उत्तरसाधक बनकर विद्या सिद्ध कराई । इससे प्रसन्न होकर साधक ने श्रीपाल को दो विद्या दी । पहिली विद्या के प्रभाव से मनुष्य पानी में नहीं इंब सके तथा दूसरी शस्त्रनिवारिणी थी। इन दोनों विद्याओं को लेकर श्रीपाल ने आगे कदम बढाये । वह भरूच नगर में पहँचा। वहाँ धवल नाम का एक बहत बड़ा व्यापारी पाँचसौ जहाज लेकर विदेशगमन हेतु तैयारी कर रहा था कि दैवी प्रकोप से उसके जहाज समुद्र में ही स्तम्भित हो गये थे। ब्राह्मणों ने बत्तीस लक्षणयुक्त पुरुष की बलि देने को कहा । धवल सेठ ने राजा से बलिदान हेतु पुरुष की मांग की । राजा ने कहा कि परदेशी व्यक्ति की बलि दे देना । श्रीपाल को परदेशी समझ धवल सेठ के सुभट पकड़ने आये । पर सिंहगर्जना कर श्रीपाल ने सबको भगा दिया । राज-सेन्य का आश्रय भी निष्फल गया, शस्त्र-निवारिणी विद्या के कारण । श्रीपाल की शूरवीरता व तेजस्विता से अभिभूत हो धवल ने स्तम्भित हुए जहाजों की चर्चा की । तब श्रीपाल ने जहाज-मुक्ति का अभिप्राय जान एक लक्ष दीनार से स्वीकार किया । नवपद का स्मरण कर श्रीपाल ने जहाजों को गतिमान किया । धवल ने श्रीपाल से साथ चलने को निवेदन किया । तब श्रीपाल ने कहा कि जितनी दस सहस्र सुभट को धन राशि दी जाती है उतनी उसे अकेले को दी जाय तब वह चल सकता है। किन्तु धवल का मन इतनी बड़ी राशि का त्याग करने को मजूर न हुआ। इधर श्रीपाल
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