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________________ साध्वी श्री सुरेखाश्री इस कृति के पश्चात् भी अनेकानेक रचनाएँ संस्कृत गुजराती में हुई है और होती जा रही है । जिनहर्ष सूरि में श्रीपालरास दो प्रकार के रचे हैं- एक बहद, दूसरा लघु । बहद् श्रीपाल रास में ४९ ढाले हैं तथा श्लोक प्रमाण ८६१ है । जबकि इस लघु रास में २१ ढाल तथा २७२+१२%२८४ कल श्लोक है। कवि ने श्रीपाल नृप के एवं नवपद विषय के महात्म्य को ध्यान में रखकर दो रास की रचना की हो ऐसा दीखता है । अल्प समय में समयाभाव के कारण जनसमूह लाभान्वित हो सके अत: लघु रास रचा होगा । ढाल न. १६ तथा पृष्ठ संख्या १ में सखियों द्वारा प्रश्नोत्तर की गणना अतिरिक्त की गई है । २७२ गाथा में उनका समावेश नहीं किया गया । ६ गाथाएँ इसमें विशेष हैं। अंतिम दो गाथाओं में ग्रंथकार ने अपनी प्रशस्ति दी हैं। 'खरतरगच्छ में जिन चन्द्रसूरि के शासन काल में १७४२ वि. सं. में चैत्र वदि तेरस के दिन पाटग में वाचक शांतिहर्ष के के शिष्य जिनहर्ष ने इस रास की रचना की गई है।' लेखक ने भी लिखा है कि संवत् १७५१ वर्ष में भहारक श्री विजयानंद सरि के शिष्य पं. श्री चंद्रविजय गणि, तशिष्य लालविजय, तशिष्य मु. वृद्धविजय ने न्यायविजय गणि के वाचनार्थ इसको लिखा । कथासार 'श्रीपाल रास' यह एक पौराणिक कथा पर आधारित पद्यमा गुजराती-हिंदी मिश्र भाषा में रचति रास है। इस रास का नायक और कथानक दोनों ही पौराणिक परंपरा के साथ सम्बन्धित है । सिद्धचक्र अर्थात् नवपदाराधना की महिमा-दर्शन के लिये इस रास की रचना की गई है। इस श्रीपाल रास में कुल २८४ गाथायें हैं। जिसमें राजा प्रजापाल, उनकी दोनों रानियाँ, दोनों पुत्रियाँ तथा श्रीपाल कुपार व धवल सेठ का वृत्तान्त दिया गया है । राजा प्रजापाल द्वारा दोनों पुत्रियों की परीक्षा, सुरसुदरी पर प्रसन्न होकर अरिदमन कुमार से विवाह, तथा मदनसुदरी पर अप्रसन्न होने से अपमान करके कुष्टरोगी उंबर (श्रीपाल) के साथ विवाह, नवपदाराधना से श्रीपाल की रोग मुक्ति, श्रीपाल के साहसिक कार्य, प्रजापाल को पराक्रम दिखाकर धर्मस्थित करना आदि आदि वृत्तों से यह कथारास ओतप्रोत है । इस रास की कथा का सार अपेक्षित होने से दिया जा रहा है मालबदेश में उज्जयिनी नामक सुदर नगरी थी। यथा नाम तथा गुण युक्त प्रजापाल नामक राजा वहां राज्य करता था । उसके दो रानियाँ-सौभाग्यसुदरी और रूपसुदरी थी। भैवमत की श्रद्वालु सौभाग्यसुदरी के सुरसुदरी एवं जैन मत में अनुरक्त रूपसुदरी के मदनसुदरी नामक पुत्री थी । सुरसुदरी शैवमत में एवं मदनसुदरी जैनमत के साथ, दोनों विविध कलाओं में प्रवीण हुई । क्रमशः दोनों यौवन वय में प्रविष्ट हुई । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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