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________________ १८. मारूतिनन्दन प्रसाद तिवारी मुक्त ही रहा । यही कारण है कि जैन धर्म में देवताओं को युगलशः या अपनी शक्तियों के साथ आलिंगन मुद्रा में नहीं निरूपित किया गया, जबकि ब्राह्मण धर्म में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि को अनेकशः शक्तियों के साथ आलिंगन मुद्रा में दिखाया गया है। जैन आचार्यों ने तांत्रिक विद्या के घिनौने आचरण को पूर्णत: अस्वीकार कर दिया और तत्र के केवल योग एवं साधना को ही स्वीकार किया । आगम ग्रन्थों में भूतों, डाकिनियों एवं पिशाचों के पर्याप्त उल्लेख है। समराइच्चकहा (८ वीं शती ई.), तिलकमंजरी एवं बहत्कथाकोष में मंत्रवाद, विद्याधरों, विद्याओं एवं कापालिकों की वैताल-साधना की चर्चा है। इनकी उपासना से साधकों को दिव्य शक्ति और मनोवांछित फल प्राप्त होते थे ।८ तांत्रिक प्रभाव में कई जैन ग्रन्थ भी लिखे गये, जिनमें ज्वालिनी माता, निर्वाणकलिका (ल. ९०० ई.), प्रतिष्ठासारोद्धार (ल. १३ वीं शती ई.), आचारदिनकर (१४११ ई.), भैरवपदमावतीकल्प एव अदभुत-पदमावती मुख्य है। जैन परम्परा की १६ महाविद्याएँ भी तांत्रिक देरिया ही है। कुछ जैन ग्रन्थों में यक्ष-पूजा के सन्दर्भ में भी तांत्रिक प्रभाव का संकेत मिलता है। कुवलयमाला (उद्योतनसूरि कृत,. . ल. ८ वीं शती ई ) में सिद्धों के मत्र-तत्र, एवं यक्षिणियों और योगिनियों पर नियंत्रण से सम्बन्धित उल्लेख है। कहारयणकोस में कलिंग के कालसेन का उल्लेख आया है, जिसका लिंगलक्ष नाम के यक्ष पर नियंत्रण था । कालसेन त्रिलोक पैशाचिक विद्या का भी नियंत्रक था ।१० जैन धर्म में तांत्रिक प्रभाव कभी प्रखर नहीं हुआ, फलतः ब्राह्मण मन्दिरों के समान जैन मन्दिरों पर काम-कला से सम्बन्धित अंकन की प्रचुरता नहीं दिखाई देती । जैनों ने धर्म के सन्दर्भ में उदारता की नीति अपनाई और जैन धर्म की प्रासंगिकता या लोकप्रियता बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार उसमें कुछ शिथिलन भी स्वीकार किये । तांत्रिक प्रभाव के फलस्वरूप जैन देवकुल में हुई वृद्धि के समय जनों ने ब्राह्मण धर्म और कभी-कभी बौद्ध धर्म, के देवी-देवताओं को उदारता के साथ अपने धर्म में सम्मिलित किया । २४ जिनों के यक्ष और यक्षियों में अधिकांश अन्य धर्मों से ग्रहण किये गये हैं। इनमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, अष्टदिक्पाल, नवग्रह, वैष्णवी, कुमार, वज्रशंखला मुख्य है। अपनी इस उदारता या धर्मसहिष्णुता द्वारा गैनों ने संभवतः इतर धर्मावलम्बियों को जैन धर्म के प्रति आकृष्ट करने की चेष्टा भी की थी। सम्भवत: इसी भाव के कारण जैनों को काम-सम्बन्धी अंकनों की प्रासंगिकता का भी अहसास हुआ होगा । फलतः जेन धर्म में इस प्रसंग में कुछ शिथिलन का भाव आया होगा जो जैन ग्रन्थ हरिवंशपुराण (७८३ ई.) के एक सन्दर्म से कुछ अधिक स्पष्ट होता है । हरिवंशपुराण (जिनसेनकत ) में एक स्थल पर उल्लेख है कि सेठ कामदत्त ने प्रजा के कौतुक के लिए एक जिन मन्दिर में कामदेव और रति की मूर्तियां भी बनवाई । कामदेव और रति को देखने के कुतूहल से जगत के लोग जिन मन्दिर में आते थे, और इस प्रकार कौतुकवश आये हए लोगों को जिन धर्म की प्राप्ति होती थी। यह जिन मन्दिर कामदेव मन्दिर के नाम से ही प्रसिद्ध था ।११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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