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________________ सुषमा कुलश्रेष्ठ अर्थात् जिस अलका में ललित लननाओं वाले, रंग विरंगे चित्रो से युक्त, संगीत के लिए थाप दिये गये हुए मृदंगों वाले, पत्थरों से बने फर्श वाले और गगनचुम्बी शिखरों वाले प्रासाद, कोंधती बिजलियोंवाले, सतरंगे इन्द्रधनुष से युक्त, स्निग्ध और गम्भीर गड़गड़ाहट वाले, भीतर भरे हुए जल वाले और अत्यन्त ऊँचे उठे हुए (हे मेघ !) तुम्हारे साथ. उन उन विशेषताओं के कारण समता करने में समर्थ हैं। इस पद्य में 'सङगीताय प्रहतमुरजा :' तथा 'स्निग्धगम्भीरघोषम्' संगीत विषयक पद है। मेघ की गड़गड़ाहट स्निग्ध तथा गम्भीर है । अलका के प्रासाद समृद्ध लोगों के प्रासाद हैं जहाँ अन्य अनेक विशेषताएँ तो हैं हीं । एक बहुत महत्त्व-पूर्ण विशेषता यह है कि वहाँ मृदंग सतत वाद्यमान है । उन पर थाप दी जा रही है- संगीत- प्रस्तुति के लिए । गायन, वादन और नृत्य, इन तीनों की गणना संगीत में है जैसा संगीतरत्नाकर में कहा गया है'नयंत वाद्य तथा गीतं त्रयं सङ्गीतमुच्यते ।' चतुर्थी विभक्ति यहाँ संगीतकर्त के अर्थ में 'क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणिस्थानिनः' (अ० २-३-१४) के अनुसार संगत है । मुरज का अर्थ है मद'ग । अमर कोष में उल्लेख है -- मृदङ्गा : मुरजाः । शब्दार्णव के अनुसार 'मुरजा तु मदने स्याद ढक्कामुरजयोरपि ' मृदंग को वेष्टित होने के कारण 'मुरज' (मरं वेष्टन जातमस्य-रामाश्रमी) कहा जाता है । 'प्रहत' का अर्थ हैं -- 'ठन काये गये' या 'हाथ से बजाये गये' या थाप लगाये गये 'प्रहता मुरजा येषु ते प्रहतमुरजा' (बहुव्रीहि समास । कालिदास के इस पद्य में सर्वत्र एक पद वाले विशेषण ही उभय पक्ष में दिये गये हैं --मेघ के विशेषण है--विद्युत्वन्तं, सेन्द्रचाप, स्निग्धगम्भार घोषम् , अन्तस्तोयम् और तुगम् तथा दूसरी और पासाद के विशेषण हैं -- ललितवनिताः, सचित्राः, मणिमयभुवः, अभ्रंलिहाया और संगीताय प्रहतमुरजाः । प्रकृत विशेषण को छोड़कर सभी एकपदात्मक ही हैं। इस स्थान पर दो पदों के प्रयोग से प्रक्रमभंग दोष आ गया है । वस्तुतः जैसा प्रयोग आरम्भ किया जाये, उसे अन्त तक निभाना चाहिये अन्यथा प्रस्तावौचित्य बिगड़ जाता है। भग्नप्रक्रम का लक्षण है -- 'भग्नः प्रक्रमः प्रस्तावौचित्यं यत्र तत्' (काव्यप्रदीप) । नागेश ने प्रस्तावौचित्य के सम्बन्ध में लिखा है -- येन रूपेणोपक्रमस्तेनोपसंहारः । अतः प्रस्तुत श्लोक में भी एकपदात्मक उपक्रम का अन्त तक पालन करना चाहिए किन्तु कालिदास ने यहाँ संगीताय और प्रतमुरजा: यह दो पद लिखकर उसको भग्न कर दिया : भग्नप्रक्रम दोष आ गया। इस दोष का निवारण कर दिया है दक्षिणावर्तनाथ ने संगीतार्थप्रहतमुरवाः पाठ देकर। इस प्रकार दक्षिणावर्तनाथ के पाठ को रमणीयता की दृष्टि से अधिक अच्छा पाठ माना ज सकता है । 'सङगीताय प्रहतमुरजाः' इस तथ्य का द्योतक है कि मृदंग के अतिरिक्त अन्य संगीत यथा गानादि भी वहाँ चल रहा है । सुबोधा के अनुसार संगीताय का अर्थ गानार्थ है । वल्लभदेव ने अपनी पचिका टीका में बहुत अच्छा लिखा है -- 'तेऽपि गुणनिकार्थ प्रहतमुरजाः वादितमृदङगाः' अर्थात् संगीत के साथ मृदंगों का वादन वहाँ लगातार हो रहा है। इस प्रकार प्रवर्तमान संगीत तथा वाद्यमान मृदंग से प्रासादों में एक श्रुतिमधुर एवम् अतीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520761
Book TitleSambodhi 1982 Vol 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1982
Total Pages502
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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